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अप्रैल 13, 2012

निर्मल बाबा पर लगे टेक्स चोरी के आरोप 
अजीबोगरीब तरीके से लोगों की परेशानियों को दूर करने का दावा करने वाले धर्मयोगी निर्मल बाबा की मुश्किलें लगातार बढती ही जा रही हैं. छठी इंद्री को लेकर सुर्खियों में आए निर्मल बाबा की कमाई पर अब सवाल उठने लगे हैं. सालाना अरबों रूपए की धनराशी कमाने वाले निर्मल बाबा पर अब टेक्स चोरी के आरोप लगे हैं. यही वजह है कि इतना पैसा कमाने के बावजूद भी उनके पास टेक्स का कोई लेखा झोखा सार्वजनिक नहीं है. 



निर्मल बाबा के कृपा के कारोबार पर अब गंभीर आरोप लग रहे हैं. शंकराचार्य स्वरूपानंद सरस्वती ने भी कहा है कि पैसे लेकर कृपा का कारोबार करना गलत है. उनके खिलाफ जहां एक के बाद एक शिकायतें दर्ज हो रही हैं, वहीं अब उन्‍हें खुले आम चुनौती भी दी गई है. उन पर पैसे देकर लोगों से अपना महिमा मंडन कराने वाले बयान दिलवाने के आरोप भी लग रहे हैं. ऐसे में निर्मल बाबा के कृपा के कारोबार का अब क्या होगा ये सवाल ज्यों का त्यों बना ही हुआ है, साथ ही और नए नए खुलासे सामने आ रहे हैं. 


लखनऊ के दो बच्चों की कोर्ट जाने की बात, कहा पुलिस एफआईआर दर्ज करे निर्मल बाबा के खिलाफ
पिछले कई दिनों से अपने अजीबोगरीब कृपा के कारोबार को लेकर सुर्ख़ियों में आये निर्मल बाबा के खिलाफ बच्चों ने भी मोर्चा खोल दिया है. लखनऊ के दो बच्चों ने बाबा के खिलाफ  एफआईआर दर्ज करने की मांग की है. इस दोनों बच्चों का कहना है कि यदि पुलिस निर्मल बाबा के खिलाफ एफआईआर दर्ज नहीं करेगी तो वे कोर्ट का दरवाजा खटखटाएंगे. 


लखनऊ और रायपुर में बाबा के खिलाफ पुलिस में शिकायत भी दर्ज करवाई जा चुकी है. रायपुर के डीडी नगर थाने में दर्ज शिकायत में टीवी चैनलों में दिखाए जा रहे 'थर्ड आई निर्मल बाबा' कार्यक्रम में लोगों की समस्याओं का समाधान करने का दावा करने वाले निर्मल बाबा पर पाखंडी होने का आरोप लगाया गया है.  इसमें कहा गया है कि बाबा लोगों को अनर्गल उपाय बतलाकर उनके साथ धोखाधड़ी करके फीस के रूप में मोटी रकम वसूलते हैं। बाबा के बताए उपाय खोखले और भोलेभाले लोगों को गुमराह करने वाले हैं. शिकायत दर्ज करवाने वाले का नाम योगेन्द्र शंकर शुक्ला बताया जा रहा है, जो कि रविशंकर विश्वविद्यालय के पूर्व छात्रसंघ के अध्यक्ष हैं. 






निर्मल बाबा लोगों की धार्मिक भावना को ठेस पहुंचा रहे हैं: योगेन्द्र शंकर शुक्ला
रविशंकर विश्वविद्यालय के पूर्व छात्रसंघ अध्यक्ष योगेन्द्र शंकर शुक्ला ने रायपुर के डीडी नगर थाने में दर्ज शिकायत में टीवी चैनलों में दिखाए जा रहे 'थर्ड आई निर्मल बाबा' कार्यक्रम में लोगों की समस्याओं का समाधान करने का दावा करने वाले निर्मल बाबा पर पाखंडी होने का आरोप लगाया है. 


विश्वविद्यालय के पूर्व छात्रसंघ अध्यक्ष शुक्ला ने प्रेस को संबोधित करते हुए कहा कि," चैनलों में निर्मल बाबा को ईश्वर का अवतार व दुखों का हरण करने वाले बाबा के रूप में प्रचारित किया जा रहा है.  वे लोगों को बताते हैं कि समस्याएं सुलझाने के लिए भजिया, समोसा खाएं या महंगे जूते पहने, महंगा पर्स जेब में रखें या नोटों की गड्डी तिजोरी में रखें.  घर में शिवलिंग न रखें.  ऐसे ही अनेक उपाय पूर्ण रूप से खोखले हैं और इनसे समस्या का समाधान नहीं होता बल्कि लोगों में अंधविश्वास जैसी भावना पनपती है.  उन्‍होंने कहा कि शिवलिंग को घर में न रखने की सलाह से उनकी धार्मिक भावना को ठेस पहुंची है.  वे बरसों से शंकर के भक्त हैं और उनके जैसे अनेक लोग आहत हुए हैं.  


योगेन्द्र शुक्ला ने निर्मल बाबा के सभी उपायों को बेबुनियाद और ईश्वरीय शक्ति से परे बताया है. लखनऊ के गोमती नगर थाने में भी बाबा के खिलाफ ऐसी ही शिकायत दर्ज हुई है.  इस शिकायत में कहा gya है कि बाबा लोगों में अंधविश्वास को बाधा रहे है और लोगों की भावनाओं और उनके धार्मिक विचारों के साथ खिलवाड़ कर रहे हैं. 


दूसरी तरफ कई टीवी सीरियल में काम कर चुकी जूनियर आर्टिस्ट निधि ने मीडिया में खबर दी है कि निर्मल बाबा  प्रारंभिक दिनों में ठगी का धंधा चमकाने के लिए ठग  नोएडा की फिल्म सिटी स्थित एक स्टूडियो में अपने प्रोग्राम की शूटिंग करवाते थे.  उसमें बाबा के सामने जो लोग अपनी समस्या हल होने का दावा करते थे, वे लोग असली न होकर जूनियर आर्टिस्ट हुआ करते थे. निधि ने बताया कि उन जूनियर आर्टिस्टों की लिस्‍ट में उसका भी नाम था. 


इस  जूनियर आर्टिस्ट के हवाले से मीडिया में आई खबर ने निर्मल बाबा को एक बड़े संकट में डाल दिया है. निधि का कहना है कि निर्मल बाबा सवाल पूछने के लिये उसे 10 हजार रुपये देते थे और वे ऐसा काम और भी कई लोगों से पैसे देकर करवाते हैं.
 

अंधश्रद्धा निर्मूलन समिति ने निर्मल बाबा को दिया 15 लाख रु इनाम का प्रस्ताव
छठी इंद्री को लेकर प्रसिद्द होने वाले निर्मल बाबा पर लगातार उँगलियाँ उठ रही है. उनके खिलाफ कही पुलिस थानों में शिकायत दर्ज हुई हैं तो कहीं बच्चे उनके खिलाफ कोर्ट में जाने की बात कह रहे हैं. ऐसे में निर्मल बाबा पर अंधश्रद्धा निर्मूलन समिति के इस आरोप ने बाबा को और  अधिक परेशानी में डाल दिया है. समिति ने बाबा पर दैवीय शक्तियों का दावा कर लोगों का शोषण करने का आरोप लगाया है. 


समिति के कार्याध्यक्ष उमेश चौबे व हरीश देशमुख ने अपने बयान में बाबा पर आरोप लगाते हुए कहा कि," निर्मल बाबा का दैविक शक्ति का दावा खोखला, निराधार व धार्मिक प्रवृत्ति के कट्टरपंथी लोगों के लिए मानसिक रूप से गुमराह करने वाला है. उन्होंने आरोप लगाया कि टीवी चैनलों पर नकली भक्तों को पेश कर बाबा अपनी वाहवाही कराते हैं. समिति ने टीवी चैनलों पर चल रहे इन विज्ञापनों पर पाबंदी लगाने की मांग केंद्र सरकार से की है.  उन्‍होंने कहा कि यदि बाबा के पास वास्तव में चमत्कारिक शक्तियां हैं, तो वह अपनी शक्तियों के बल पर एक पापड़ भी तोड़ कर दिखा दें तो समिति उन्‍हें 15 लाख रु. इनाम देगी.


रायपुर के डीडी नगर थाने में दर्ज शिकायत में टीवी चैनलों में दिखाए जा रहे 'थर्ड आई निर्मल बाबा' कार्यक्रम में लोगों की समस्याओं का समाधान करने का दावा करने वाले निर्मल बाबा को पाखंडी बताया है. शिकायत में बताया गया है कि बाबा लोगों को अजीबोगरीब उपाय बतलाकर भोले भाले लोगों से धोखाधड़ी से फीस के रूप में मोटी रकम वसूलते हैं.





इन्टरनेट की दुनिया के भी बेताज बादशाह हैं निर्मल बाबा
अपनी  छठी इंद्री को लेकर चर्चा में आये निर्मल बाबा आज दुनिया के किसी भी कोने में परिचय के मोहताज नहीं हैं. इसका एक जीता जागता उदाहरण हैं कि इन्टरनेट पर भी निर्मल बाबा सबसे अधिक सर्च होने वाले नामों की लिस्ट में आता है. इन्टरनेट की कई सोशल वेबसाइट्स पर बाबा चर्चा का केंद्र बने हुए हैं. लेकिन यह चर्चा और भी अधिक गर्म हो चुकी है क्‍योंकि उनके बारे में कोई भी जानकारी सार्वजनिक तौर पर उपलब्ध नहीं है.  इंटरनेट या मीडिया में भी उनके बारे में ज्‍यादा कुछ नहीं छपा है, लेकिन उनकी चर्चा जबरदस्‍त है. 


गूगल पर अंग्रेजी में निर्मल बाबा टाइप करने पर आधे मिनट में करीब 29 लाख सर्च रिजल्ट्स सामने आते हैं. लेकिन गूगल न्‍यूज में यही टाइप करने पर मात्र आठ सर्च रिजल्‍ट्स ही दिखाई देते हैं, और, इन आठ में से एक में भी निर्मल बाबा के बारे में कोई खबर नहीं होती है. 


वहीँ सोशल साइट्स पर भी निर्मल बाबा टॉप पर हैं लेकिन हैरानी वाली बात यह है कि यहाँ भी उनके बारे में कोई सार्वजनिक जानकारी उपलब्ध नहीं है. यहाँ भी केवल व्‍यावसायिक जानकारियां ही साझा की गई हैं. फेसबुक पर निर्मल बाबा के प्रशंसकों का पेज है, जिसे करीब 318100 लोग पसंद करते हैं.  इस पेज पर निर्मल बाबा के टीवी कार्यक्रमों का समय और उनकी तारीफ से जुड़ी टिप्पणियां हैं.


सबसे अधिक हैरान करने वाली बात है कि निर्मल बाबा के जीवन या उनकी पृष्ठभूमि के बारे में उनकी आधिकारिक वेबसाइट निर्मलबाबा. कॉम पर कोई जानकारी नहीं दी गई है. इस वेबसाइट पर भी केवल उनके कार्यक्रमों, उनके समागम में हिस्सा लेने के तरीकों के बारे में बताया गया है और उनसे जुड़ी प्रचार प्रसार की सामग्री उपलब्ध है. 


टीवी और इंटरनेट के जरिए निर्मल बाबा पूरे भारत ही नहीं, बल्कि दूसरे देशों में भी रोज लोगों तक पहुंचते हैं. निर्मल बाबा के समागम का प्रसारण देश-विदेश के तकरीबन 39 टीवी चैनलों पर सुबह से लेकर शाम तक रोजाना करीब 25 घंटे का प्रसारण अलग-अलग समय पर किया जा रहा है.



निर्मलबाबा.नेट  वेबसाइट का दावा, दैवीय मनुष्य हैं निर्मल बाबा
पिछले कई दिनों से मीडिया के सवालों और कई तरह के आरोपों से घिरे निर्मल बाबा के बारे में जहाँ किसी भी वेबसाईट पर किसी भी प्रकार की सार्वजनिक जानकारी उपलब्ध नहीं है, वहीँ  निर्मलबाबा.नेट वेबसाईट पर बाबा के बारे में कई दावे किये गए हैं. हालांकि, निर्मलबाबा.कॉम में बताया गया है कि निर्मलबाबा.नेट.इन एक फर्जी वेबसाइट है.


निर्मलबाबा.नेट.इन वेबसाइट के मुताबिक निर्मल बाबा आध्यात्मिक गुरु हैं और भारत में वे किसी परिचय के मोहताज नहीं हैं. इस वेबसाइट पर उन्हें दैवीय मनुष्य बताया गया है. उनकी शान में कसीदे गढ़ते हुए बताया गया है कि किसी भी इंसान का सबसे बड़ा गुण 'देना' होता है और निर्मल बाबा लंबे समय से लोगों को खुशियां दे रहे हैं.


यह वेबसाईट दावा करती है कि निर्मल बाबा के पास छठी इंद्रिय (सिक्स्थ सेंस) है. कई लोग मानते हैं कि रहस्यमयी छठी इंद्रिय विकसित होने से मनुष्य को भविष्य में होने वाली घटना के बारे में पहले से ही पता चल जाता है.  इस साईट के  के मुताबिक निर्मल बाबा की छठी इंद्रिय विकसित है. शायद इसलिए उनके समागम का शीर्षक ही 'थर्ड आई ऑफ निर्मल बाबा' होता है.


इस वेबसाईट पर निर्मल बाबा के जीवन या उनकी पृष्ठभूमि के बारे में भी काफी जानकारी उपलब्ध है. साईट के अनुसार , "निर्मल बाबा नई दिल्ली में रहने वाले आध्यात्मिक गुरु हैं. वे 10 साल पहले साधारण व्यक्ति थे. लेकिन बाद में उन्होंने ईश्वर के प्रति समर्पण से अपने भीतर अद्वितीय शक्तियों का विकास किया. ध्यान के बल पर वह ट्रांस (भौतिक संसार से परे किसी और दुनिया में) में चले जाते हैं. ऐसा करने पर वह ईश्वर से मार्गदर्शन ग्रहण करते हैं, जिससे उन्हें लोगों के दुख दूर करने में मदद मिलती है. 


निर्मल बाबा के पास मुश्किलों का इलाज करने की शक्ति है. वे किसी भी मनुष्य के बारे में टेलीफोन पर बात करके पूरी जानकारी दे सकते हैं. यहां तक कि सिर्फ फोन पर बात करके वह किसी भी व्यक्ति की आलमारी में क्या रखा है, बता सकते हैं. उनकी रहस्मय शक्ति ने कई लोगों को कष्ट से मुक्ति दिलाई है."


निर्मल बाबा के बारे में उनकी आधिकारिक वेबसाइट पर दिए गए नंबरों ने भी एक नई कड़ी जोड़ दी है. इस वेबसाईट पर दिए गए नम्बरों को मिलाने पर ये नम्बर हमेशा व्यस्त ही रहते हैं. 





फेसबुक के अमिताभ बच्चन हैं निर्मल बाबा
अमिताभ बच्चन, एक ऐसी शख्सियत जो परिचय के मोहताज नहीं हैं. फिल्म जगत हो या दुनिया का कोई भी कोना, बिग बी के फेंस की तादाद अनगिनत है. बिग बी की तरह चाहने वालों की सूची में आजकल एक नाम और है जो सोशल साइट्स पर बहुत लोकप्रिय है. यह नाम है अपने अजीबोगरीब उपायों से हर समस्‍या का चुटकी में हल बता कर लाखों भक्‍त बनाने वाले निर्मल बाबा का. 


निर्मल बाबा फेसबुक जैसी सोशल साईट का अपने कृपा के कार्यक्रमों के प्रचार के लिए सबसे अधिक इस्तेमाल करते हैं. फेसबुक पर निर्मल बाबा के दो पेज हैं. जिसमें से  एक पेज 23 जुलाई 2011 को शुरू किया गया था, लेकिन यह ज्यादा लोकप्रिय नहीं रहा और न ही ज्यादा लोग इस पेज के साथ जुड़े. लेकिन अब इस पेज से एक लाख 13 हजार से ज्यादा लोग जुड़े हैं.  इस पेज पर सितंबर 2011 के बाद से कोई अपडेट नहीं किया गया है लेकिन फिर भी अप्रैल में इससे 11747 नए लोग जुड़े जबकि मार्च में 27773 लोग इस पेज से जुड़े. सितंबर के बाद सिर्फ 24 मार्च को इस पेज पर एक पोस्ट हुआ जिसमें लोगों को उनके नए पेज 'निर्मलबाबाजी' से जुड़ने की जानकारी दी गई. 



दूसरी तरफ निर्मल बाबा का एक सक्रीय पेज है जो 5 नवंबर 2010 को शुरु हुआ था जिससे अब तक कुल 3 लाख 53 हजार से भी अधिक लोग जुड़ चुके हैं. निर्मल बाबा के चमत्कारों को लेकर इस पेज पर गंभीर बहस हो रही है. इस पेज पर अंतिम पोस्ट 6 अप्रैल 2012 को किया गया था जिसमें भक्तों को पूर्णमासी कार्यक्रम के समाप्त किए जाने की जानकारी दी गई है. 



इस पेज पर दी गयी अंतिम पोस्ट का आंकड़ा काफी चौंकाने वाला है.  इस पोस्ट को जहां 17 हजार से ज्यादा लोगों ने लाइक किया वहीं 421 ने शेयर किया.  अकेले इस पोस्ट पर ही लगभग 18 हजार टिप्पणियां की गई हैं जिनमें से अधिकतर में बाबा की आलोचना है और उनके तौर-तरीकों पर प्रश्न खड़े किए गए हैं. 



लखनऊ, रायपुर, भोपाल और फतेहपुर में निर्मल बाबा के खिलाफ शिकायत दर्ज 
अपने अजीबोगरीब उपायों से हर समस्‍या का चुटकी में हल बता कर लाखोंभक्तों को अपना मुरीद बनाने वाले निर्मलजीत  सिंह नरूला उर्फ़ निर्मल बाबा के खिलाफ शिकायतों का सिलसिला बढ़ता ही जा रहा है. करीब तीन दर्जन  टीवी चैनलों पर रोज  विज्ञापन  दिखवा कर घर-घर में चर्चा का विषय बन चुके निर्मल बाबा पर  'कृपा का कारोबार' करने का आरोप लग रहा है. अब उनकी निजी जिंदगी के बारे में भी अब खुलकर सवाल किए जा रहे हैं. 



छठी इंद्री होने का दावा करने वाले निर्मल बाबा पर चार अलग-अलग शहरों-लखनऊ, रायपुर, भोपाल और फतेहपुर में शिकायत दर्ज की गई है. लखनऊ में तो दो बच्चों ने निर्मल बाबा के खिलाफ शिकायत की मांग करते हुए ये कहा है कि अगर पुलिस ने निर्मल बाबा के खिलाफ एफआईआर दर्ज नहीं की तो वे कोर्ट का दरवाजा खटखटाएंगे. 


इंटरनेट सर्च को लेकर रिसर्च करने से यह बात साफ हो गई है कि निर्मल बाबा में लोगों की रुचि अचानक काफी बढ़ गई है. लेकिन खास बात यह है कि बाबा का तिलिस्‍म टूटता दिख रहा है, क्‍योंकि पिछले कुछ दिनों में इंटरनेट पर लोग 'फ्रॉड निर्मल बाबा' को सबसे ज्‍यादा सर्च कर रहे हैं. हालांकि लगता है कि बाबा 'साइबर युद्ध' के लिए भी पूरी तरह तैयार हैं और 'फौज' खड़ी कर सोशल साइट्स के जरिए माहौल अपने पक्ष में करने की कोशिश कर रहे हैं.


आईपीएल 5: कोलकाता नाइट राइडर्स ने राजस्थान रोयल्स पर हासिल की फ़तेह 
साउथ अफ्रीका की टीम के संकटमोचन कहे जाने वाले व आईपीएल में कोलकाता टीम के सबसे दमदार बल्लेबाज़ जैक कैलिस (31 रन) की बेहतरीन बल्लेबाजी और शाकिब अल हसन (17 रन देकर 3 विकेट) की घातक गेंदबाजी के दम पर कोलकाता नाइट राइडर्स ने आईपीएल-5 में दूसरी फ़तेह हासिल कर ली. इस मैच में कोलकाता ने राजस्थान की टीम को 5 विकेट से शिकस्त दे दी. 


टॉस जीतकर पहले बल्लेबाजी करते हुए राजस्थान की टीम 20 ओवरों में 5 विकेट के नुकसान पर 131 रन बनाये. ओवेस शाह ने अपना महत्वपूर्ण योगदान देते हुए सर्वाधिक 31 रन बनाए. 


132 रनों के लक्ष्य का पीछा करते हुए कोलकाता की टीम ने 19.2 ओवेरों में अपना लक्ष्य हासिल कर लिया. क कैलिस ने सर्वाधिक 31 रन बनाए. इस जीत के साथ ही कोलकाता नाइट राइडर्स आईपीएल के इस पांचवें सत्र के चौथे स्थान पर पहुँच गई. शाकिब अल हसन में ऑफ़ द मैच बने. 


आईपीएल-5 के 15वें मुकाबले में आज यहां ईडन गार्डन स्टेडियम में राजस्थान रॉयल्स की भिडंत  मेजबान कोलकाता नाइट राइडर्स से थी. टॉस जीतकर राजस्थान रॉयल्स ने पहले बल्लेबाजी करने का फैसला किया है. गौरतलब है कि आईपीएल के इस सत्र में कोलकाता नाइट राइडर्स को पिछले मैच में  राजस्थान रॉयल्ससे हार नसीब हुई थी. इसी का बदला लेने उतरी गंभीर की कोलकाता टीम ने अच्छा प्रदर्शन करते हुए आज का मैच अपने नाम कर लिया. कोलकाता की यह दूसरी जीत है.  कोलकाता की ओर से शानदार गेंदबाजी का प्रदर्शन करते हुए शाकिब अल हसन ने 17 रन देकर 3 विकेट चटकाए.



आईपीएल-5 के 15वें मुकाबले में कोलकोता नाइट राइडर्स  को 132 रन का लक्ष्य हासिल करना था.  टॉस जीतकर पहले बल्लेबाजी करने उतरी राजस्थान रॉयल्स ने 20 ओवरों में 5 विकेट गंवाकर 131 रन बनाए. ओवेस शाह ने सर्वाधिक 31 रन और कप्तान राहुल द्रविड़ ने 28 रन की महत्वपूर्ण पारी खेली, लेकिन कप्तान इस मैच को जीत में नहीं बदल पाए.
   
 

पुलिस ने गिनवाए बलात्कार होने के 6 मुख्य कारण
हाल ही में बलात्कार और उससे पीड़ित महिलाओं को लेकर पुलिस के रवैये को जानने के लिए तहलका ने एक स्टिंग ऑपरेशन किया, जिसके बाद इस बात का खुलासा हो गया है कि पुलिस बलात्कार जैसे बढ़ते मामलों के लिए किस बात को मुख्य टूर पर जिम्मेदार ठहराती है. इसके लिए पुलिस ने 6 अजीबोगरीब कारण बताये हैं. आइये डालते हैं पुलिस द्वारा बताये गए इन कारणों पर एक नज़र:

कारण १:  अपने पहले कारण में पुलिस ने महिलाओं के साडी या सलवार-कमीज न पहनने को बलात्कार की मुख्य वजह बताया है.  फरीदाबाद के सेक्टर 31 थाने के एएसएचओ सतबीर सिंह ने स्टिंग ऑपरेशन में कहा,  "लड़कियों को यहां से यहां तक (पूरे शरीर को) ढंकना चाहिए...वे स्कर्ट पहनती हैं, ब्लाउज पहनती हैं, लेकिन पूरे शरीर को ढंकने वाले कपड़े नहीं पहनती हैं और दुपट्टा नहीं डालती हैं. अपना दिखावा करती हैं तो बच्चा उसकी तरफ आकर्षित होता है."

 
तहलका के इस स्टिंग ऑपरेशन के अनुसार  सूरजपुर थाने के इंचार्ज अर्जुन सिंह कहा, "वह इस तरह से कपड़े पहनती हैं कि लोग उसकी तरफ आकर्षित हो जाते हैं.  मेरा तो यहां तक मानना है कि महिलाएं इसीलिए ऐसा करती हैं कि लोग उनके साथ कुछ करें."


कारण २: लड़की को किसी लड़के के साथ शारीरिक सम्बन्ध बनाने से पहले लाख बार सोचना चाहिए. अगर कोई लड़की किसी एक लड़के के साथ शारीरिक संबंध बनाती है तो उसके साथ लड़के के अलावा उसके दोस्त भी रेप कर सकते हैं.  गाजियाबाद जिले के इंदिरापुरम थाने के इंचार्ज धरमवीर सिंह ने कहा, "ऐसा बहुत ही कम होता है कि किसी एक लड़की को 10 लड़के उठा लें.  अगर कोई लड़की लड़कों से भरी कार में बैठती है तो वह निर्दोष नहीं हो सकती है.  अगर वह ऐसा करती है तो उसका किसी न किसी लड़के के साथ रिश्ता है."     
 
 
 
 कारण ३: पुलिस ने लड़की का शराब पीने वाले लड़कों के साथ रहने पर भी सवाल खड़े किये हैं. पुलिस का मानना है कि शराब और मौका रेप के लिए जरूरी माहौल तैयार करते हैं और यही रेप की वजह होते हैं. गुड़गांव के सेक्टर 40 थाने के रूपलाल ने इस मामले में अपना तर्क रखा, "जैसे हम लोग बैठे हैं, ज़्यादा दारू पी ली....फिर तो ऐसा ही होगा. रात भर रख ली.  वह इस बात का अपने घर वालों को क्या जवाब देगी. वह एक घंटे के लिए कहकर गई और पूरी रात ही बाहर रह गई।. तो मां-बाप तो पूछेंगे. भाई भी पूछेगा. जिनका समाज है, वे तो पूछते हैं"


कारण 4: लड़की की मां का चरित्र ठीक नहीं होना भी लड़कियों के साथ रेप के मुख्य कारणों की सूची में है. 10 वीं में पढ़ने वाली लड़की के साथ कुछ दिनों पहले नोएडा में हुए गैंग रेप मामले की जांच करने वाले पुलिस अधिकारी राम मलिक के मुताबिक, "लड़की की मां तलाकशुदा है. वह यादव समुदाय के एक पुरुष के साथ रह रही है.  महिला की उम्र 48 जबकि पुरुष की उम्र 28 है. ऐसे में इस बात की पूरी आशंका है कि लड़कियां भटक सकती हैं" 
 
 
कारण 5: पुलिस ऊंचे तबके की महिलाओं के कपडे पहनने के तरीके को भी गलत मानती है. पुलिस का कहना है कि  इस वजह से वे मुसीबत को न्योता देती हैं. अपने इस स्टिंग ऑपरेशन के दौरान तहलका ने 30 पुलिस वालों से बात की.  इनमें से 17 ने माना कि बलात्कार की 'वास्तविक' घटनाएं बहुत कम होती हैं.  70 फीसदी मामलों में सेक्स रजामंदी से होता है.  लेकिन जब कोई ऐसा देख लेता है या पैसे की मांग पूरी नहीं होती है तो इसे रेप में तब्दील कर दिया जाता है.  सेक्टर-24 थाने के सब इंस्पेक्टर मनोज रावत ने इस बारे में कहा, "एनसीआर में ज़्यादातर रेप के मामले आपसी रजामंदी से होते हैं.  मेरी निजी राय में पूरे एनसीआर में एक या दो फीसदी ही वास्तविक रेप के केस होते हैं."

 
कारण 6: अपने अंतिम बताये गए कारण में पुलिस किसी महिला के साथरेप के बाद शिकायत दर्ज करवाने को भी गलत मानती है.  पुलिस का यह भी कहना है कि जो महिला रेप की शिकायत लेकर थाने आती है, वह 'धंधे' में लिप्त होती है.  नोएडा के सेक्टर 39 थाने के दरोगा योगेंद्र सिंह तोमर का कहना है कि," 'उसके लिए (रेप से पीड़ित के लिए) आसान नहीं होता. बेइज़्ज़ती से सभी डरती हैं. अखबार बाजी से भी डरती हैं. असलियत में वही आती (रेप की शिकायत लेकर थाने) हैं जो धंधे में लिप्त होती हैं. ' दूसरे शब्दों में अगर आपके साथ वाकई रेप हुआ है तो आप कभी शिकायत नहीं करेंगी. लेकिन अगर आपने शिकायत कर दी तो पुलिस यह मानेगी ही नहीं कि आपके साथ रेप हुआ है."  



अभिनेत्री तारा चौधरी ने

 
 




फ़रवरी 09, 2012

लोक सभा, भारतीय संसद का निचला सदन है. भारतीय संसद का ऊपरी सदन राज्य सभा है. लोक सभा सार्वभौमिक वयस्क मताधिकार के आधार पर लोगों द्वारा प्रत्यक्ष चुनाव द्वारा चुने हुए प्रतिनिधियों से गठित होती है. भारतीय संविधान के अनुसार सदन में सदस्यों की अधिकतम संख्या 552 तक हो सकती है, जिसमें से 530 सदस्य विभिन्न राज्यों का और 20 सदस्य तक केन्द्र शासित प्रदेशों का प्रतिनिधित्व कर सकते हैं. सदन में पर्याप्त प्रतिनिधित्व नहीं होने की स्थिति में भारत का राष्ट्रपति यदि चाहे तो आंग्ल-भारतीय समुदाय के दो प्रतिनिधियों को लोक सभा के लिए मनोनीत कर सकता है. कुल निर्वाचित सदस्यता का वितरण राज्यों के बीच इस तरह से किया जाता है कि प्रत्येक राज्य को आवंटित सीटों की संख्या और राज्य की जनसंख्या के बीच एक व्यावहारिक अनुपात हो, और यह सभी राज्यों पर लागू होता है. हालांकि वर्तमान परिपेक्ष्य में राज्यों की जनसंख्या के अनुसार वितरित सीटों की संख्या के अनुसार उत्तर भारत का प्रतिनिधित्व, दक्षिण भारत के मुकाबले काफी कम है. जहां दक्षिण के चार राज्यों, तमिलनाडु , आंध्र प्रदेश, कर्नाटक और केरल को जिनकी संयुक्त जनसंख्या देश की जनसंख्या का सिर्फ 21% है, को 129 लोक सभा की सीटें आवंटित की गयी हैं जबकि, सबसे अधिक जनसंख्या वाले हिन्दी भाषी राज्य उत्तर प्रदेश और बिहार जिनकी संयुक्त जनसंख्या देश की जनसंख्या का 25.1% है के खाते में सिर्फ 120 सीटें ही आती हैं.[1] वर्तमान में अध्यक्ष और आंग्ल-भारतीय समुदाय के दो मनोनीत सदस्यों को मिलाकर, सदन की सदस्य संख्या 545 है।

राज्यों के अनुसार सीटों की संख्या

लोक सभा की सीटें निम्नानुसार 28 राज्यों और 7 केन्द्र शासित प्रदेशों के बीच विभाजित है:


लोक सभा का कार्यकाल

यदि समय से पहले भंग ना किया जाये तो, लोक सभा का कार्यकाल अपनी पहली बैठक से लेकर अगले पाँच वर्ष तक होता है उसके बाद यह स्वत: भंग हो जाती है. लोक सभा के कार्यकाल के दौरान यदि आपातकाल की घोषणा की जाती है तो संसद को इसका कार्यकाल कानून के द्वारा एक समय में अधिकतम एक वर्ष तक बढ़ाने का अधिकार है, जबकि आपातकाल की घोषणा समाप्त होने की स्थिति में इसे किसी भी परिस्थिति में छ: महीने से अधिक नहीं बढ़ाया जा सकता.

पीठासीन अधिकारी

लोक सभा अपने निर्वाचित सदस्यों में से एक सदस्य को अपने पीठासीन अधिकारी के रूप में चुनती है, जिसे अध्यक्ष कहा जाता है. कार्य संचालन में अध्यक्ष की सहायता उपाध्यक्ष द्वारा की जाती है, जिसका चुनाव भी लोक सभा के निर्वाचित सदस्य करते हैं. लोक सभा में कार्य संचालन का उत्तरदायित्व अध्यक्ष का होता है

लोक सभा

प्रथम लोकसभा का गठन 17 अप्रैल, 1952 को हुआ था। इसकी पहली बैठक 13 मई, 1952 को हुई थी। लोकसभा के गठन के सम्बन्ध में संविधान के दो अनुच्छेद, यथा 81 तथा 331 में प्रावधान किया गया है। मूल संविधान में लोकसभा की सदस्य संख्या 500 निर्धारित की गयी थी, किन्तु बाद में इसमें वृद्धि की गयी। 31वें संविधान संशोधन, 1974 के द्वारा लोकसभा की अधिकतम सदस्य संख्या 547 निश्चित की गयी। वर्तमान में गोवा, दमन और दीव पुनर्गठन अधिनियम, 1987 द्वारा यह अभिनिर्धारित किया गया है कि लोकसभा अधिकतम सदस्य संख्या 552 हो सकती है। अनुच्छेद 81(1) (क) तथा (ख) के अनुसार लोकसभा का गठन राज्यों में प्रादेशिक निर्वाचन क्षेत्रों से प्रत्यक्ष निर्वाचन द्वारा चुने हुए 530 से अधिक न होने वाले सदस्यों तथा संघ राज्य क्षेत्रों का प्रतिनिधित्व करने वाले 20 से अधिक न होने वाले सदस्यों के द्वारा किया जाएगा। इस प्रकार लोकसभा में भारत की जनसंख्या द्वारा निर्वाचित 550 सदस्य हो सकते हैं। अनुच्छेद 331 के अनुसार यदि राष्ट्रपति की राय में लोकसभा में आंग्ल भारतीय समुदाय को पर्याप्त प्रतिनिधित्व न मिला हो तो वह आंग्ल भारतीय समुदाय के दो व्यक्तियों को लोकसभा के लिए नामनिर्देशित कर सकता है। अत: लोकसभा की अधिकतम सदस्य संख्या 552 हो सकती है। यह संख्या लोकसभा के सदस्यों की सैद्धान्तिक गणना है और व्यहावहरत: वर्तमान समय में लोकसभा की प्रभावी संख्या 530 (राज्यों के प्रतिनिधि) + (संघ क्षेत्रों के प्रतिनिधि) + 2 राष्ट्रपति द्वारा नाम निर्देशित = 545 है।  

स्थानों का आबंटन

लोकसभा में स्थानों को आबंटित करने के लिए दो प्रक्रिया अपनायी जाती हैं-
  1. पहला प्रत्येक राज्य को लोकसभा में स्थानों का आबंटन ऐसी रीति से किया जाता है कि स्थानों की संख्या से उस राज्य की जनसंख्या का अनुपात सभी राज्यों के लिए यथासाध्य एक ही हो, तथा
  2. दूसरा प्रत्येक राज्य को प्रादेशिक निर्वाचन क्षेत्रों में ऐसी रीति से विभाजित किया जाता है कि प्रत्येक निर्वाचन क्षेत्र की जनसंख्या का उसको आबंटित स्थानों की संख्या से अनुपात समस्त राज्य में यथासाध्य एक ही हो। 

सीटों की संख्या और प्रकार

  • सामान्य/आम निर्वाचन क्षेत्र - 423
  • अनुसूचित जाति हेतु आरक्षित निर्वाचन क्षेत्र - 79
  • अनुसूचित जनजाति हेतु आरक्षित निर्वाचन क्षेत्र - 41
  • आंग्ल भारतीय समुदाय के मनोनयन के लिए निर्धारित सीट - 2
कुल सीटें = 545 (543+2)

निर्वाचन

लोकसभा के सदस्य भारत के उन नागरिकों द्वारा चुने जाते हैं, जो कि वयस्क हो गये हैं। 61वें संविधान संशोधन अधिनियम, 1989 के पूर्व उन नागरिकों को वयस्क माना जाता था, जो कि 21 वर्ष की आयु पूरी कर लेते थे, लेकिन इस संशोधन के द्वारा यह व्यवस्था कर दी गई कि 18 वर्ष की आयु पूरी करने वाला नागरिक लोकसभा या राज्य विधानसभा के सदस्यों को चुनने के लिए वयस्क माना जाएगा। लोकसभा के सदस्यों का चुनाव वयस्क मतदान के आधार पर होता है। भारत में 1952 से लेकर अब तक की अवधि में 15 लोकसभा चुनाव हुए हैं। 15 लोकसभा चुनाव हुए हैं

अवधि

लोकसभा का गठन अपने प्रथम अधिवेशन की तिथि से पाँच वर्ष के लिए होता है, लेकिन प्रधानमंत्री की सलाह पर लोकसभा का विघटन राष्ट्रपति द्वारा 5 वर्ष के पहले भी किया जा सकता है। प्रधानमंत्री की सलाह पर लोकसभा का विघटन जब कर दिया जाता है, तब लोकसभा का मध्यावधि चुनाव होता है, क्योंकि संविधान के अनुसार लोकसभा विघटन की स्थिति में 6 मास से अधिक नहीं रह सकती। ऐसा इसीलिए भी आवश्यक है, क्योंकि लोकसभा के दो बैठकों के बीच का समयान्तराल 6 मास से अधिक नहीं होना चाहिए। अब तक लोकसभा का उसके गठन के बाद 5 वर्ष के भीतर चार बार अर्थात् 1970 में तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी की सलाह पर, 1979 में तत्कालीन प्रधानमंत्री चरण सिंह की सलाह पर, 1991 में तत्कालीन प्रधानमंत्री चन्द्रशेखर की सलाह पर, 1998 में तत्कालीन प्रधानमंत्री इन्द्रकुमार गुजराल की सलाह पर और 1999 में प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी की सलाह पर विघटन हुआ और इस प्रकार मध्यावधि चुनाव कराये गये।
विशेष परिस्थिति में लोकसभा की अवधि 1 वर्ष के लिए बढ़ायी जा सकती है। परन्तु लोकसभा की अवधि एक बार में 1 वर्ष से अधिक नहीं बढ़ायी जा सकती और किसी भी स्थिति में आपातकाल की उदघोषणा की समाप्ति के बाद लोकसभा की अवधि 6 माह से अधिक नहीं बढ़ायी जा सकती है, अर्थात् आपात उदघोषणा की समाप्ति के बाद 6 माह के अन्दर लोकसभा का सामान्य चुनाव कराकर उसका गठन आवश्यक है। भारत में पाँचवीं लोकसभा की अवधि 6 फ़रवरी, 1976 को 1 वर्ष के लिए अर्थात् 18 मार्च, 1976 से 18 मार्च, 1977 तक तथा बाद में नवम्बर, 1976 में 18 मार्च, 1977 से 18 मार्च, 1978 तक के लिए बढ़ा दी गयी थी, लेकिन जनवरी, 1977 को ही प्रधानमंत्री की सलाह पर लोकसभा का विघटन कर दिया गया और मार्च, 1977 में छठवीं लोकसभा का चुनाव कराया गया।

अधिवेशन

लोकसभा का अधिवेशन 1 वर्ष में कम से कम दो बार होना चाहिए लेकिन लोकसभा के पिछले अधिवेशन की अन्तिम बैठक की तिथि तथा आगामी अधिवेशन के प्रथम बैठक की तिथि के बीच 6 मास से अधिक का अन्तराल नहीं होना चाहिए, लेकिन यह अन्तराल 6 माह से अधिक का तब हो सकता है, जब आगामी अधिवेशन के पहले ही लोकसभा का विघटन कर दिया जाए। अनुच्छेद 85 के तहत राष्ट्रपति को समय-समय पर संसद के प्रत्येक सदन, राज्यसभा एवं लोकसभा को आहुत करने, उनका सत्रावसान करने तथा लोकसभा का विघटन करने का अधिकार प्राप्त है।

विशेष अधिवेशन

राष्ट्रीय आपातकाल की घोषणा को नामंज़ूर करने के लिए लोकसभा का विशेष अधिवेशन तब बुलाया जा सकता है, जब लोकसभा के अधिवेशन में न रहने की स्थिति में कम से कम 110 सदस्य राष्ट्रपति को अधिवेशन बुलाने के लिए लिखित सूचना दें या जब अधिवेशन चल रहा हो, तब लोकसभा को इस आशय की लिखित सूचना दें। ऐसी लिखित सूचना अधिवेशन बुलाने की तिथि के 14 दिन पूर्व देनी पड़ती है। ऐसी सूचना पर राष्ट्रपति या लोकसभाध्यक्ष अधिवेशन बुलाने के लिए बाध्य हैं।

पदाधिकारी

लोकसभा के निम्नलिखित दो पदाधिकारी होते हैं-
  1. अध्यक्ष और
  2. उपाध्यक्ष। 

कार्य एवं शक्तियाँ

लोकसभाध्यक्ष का कार्य एवं शक्तियाँ लोकसभा के सम्बन्ध में काफ़ी अधिक है, जिनका वर्णन निम्न प्रकार किया जा सकता है-
व्यवस्था सम्बन्धी शक्तियाँ
लोकसभाध्यक्ष को लोकसभा में व्यवस्था बनाये रखने के सम्बन्ध में निम्नलिखित शक्तियाँ प्रदान की गयी हैं-
  1. कार्रवाई संचालित करने के लिए सदन में व्यवस्था व मर्यादा बनाए रखना।
  2. सदन की कार्रवाई के लिए समय का निर्धारण करना।
  3. संविधान और सदन के प्रक्रिया सम्बन्धी नियमों की व्याख्या करना।
  4. विवादास्पद विषयों पर मतदान कराना और निर्णय की घोषणा करना।
  5. मतदान में पक्ष तथा विपक्ष में बराबर मत पड़ने की स्थिति में निर्णायक मत देना देना।
  6. प्रस्ताव, प्रतिवेदन और व्यवस्था के प्रश्नों को स्वीकार करना।
  7. मंत्रिपरिषद के किसी सदस्य को पदत्याग करने की स्थिति में उसे सदन के समक्ष अपना वक्तव्य देने की अनुमति देना।
  8. सदस्यों को जानकारी प्राप्त करने के लिए विचाराधीन महत्त्वपूर्ण विषयों की घोषणा करना।
  9. संविधान सम्बन्धी मामलों पर अपनी सम्मति देना।
  10. गणपूर्ति के अभाव में सदन की बैठक को स्थगित करना।
  11. किसी सदस्य को अपनी मातृभाषा में बोलने की अनुमति देना तथा उसके भाषण के हिन्दी और अंग्रेज़ी अनुवाद की व्यवस्था करना।
  12. सदन के नेता के अनुरोध पर सदन की गुप्त बैठक को आयोजित करने की स्वीकृति प्रदान करना। 
  प्रशासन सम्बन्धी शक्तियाँ
अध्यक्ष को सदन के प्रशासन के सम्बन्ध में निम्नलिखत शक्तियाँ प्रदान की गयी हैं-
  1. लोकसभा के सचिवालय पर नियत्रंण रखना।
  2. लोकसभा की दर्शक दीर्घा और प्रेस दीर्घा पर नियंत्रण रखना।
  3. लोकसभा सदस्यों के लिए आवास तथा अन्य सुविधाओं की व्यवस्था करना।
  4. लोकसभा तथा उसकी समितियों की बैठकों की व्यवस्था करना।
  5. संसदीय कार्रवाई के अभिलेखों को सुरक्षित रखने की व्यवस्था करना।
  6. लोकसभा के सदस्यों तथा कर्मचारियों के जीवन और सदन की सम्पत्ति की सुरक्षा की उपयुक्त व्यवस्था करना।
  7. लोकसभा के सदस्यों का त्यागपत्र स्वीकार करना अथवा उसे इस आधार पर अस्वीकार करना कि त्यागपत्र विवशता के कारण दिया गया है। 

लोकसभा की शक्तियाँ

अध्यक्ष तथा उपाध्यक्ष का निर्वाचन तथा उन्हें पद से हटाना

मंत्रिपरिषद् पर नियंत्रण

वित्त पर नियंत्रण

सदन में स्थान रिक्त घोषित करना

यदि लोकसभा का कोई सदस्य लोकसभा की अनुमति के बिना सदन से 60 दिन तक अनुपस्थित रहे, तो लोकसभा उस स्थान को रिक्त घोषित कर सकती है। लेकिन इस 60 दिन की अवधि की गणना करते समय उस अवधि को नहीं शामिल किया जाता, जब सदन का सत्र लगातार चार दिन तक स्थगित रहे या सदन का सत्रावसान रहे।

राष्ट्रीय आपात की उदघोषणा
लोकसभा अनुच्छेद 352 के अधीन राष्ट्रपति द्वारा जारी राष्ट्रीय आपात की उदघोषणा को भी नामंज़ूर कर सकती है। ऐसी नामंज़ूरी लोकसभा का विशेष अधिवेशन बुलाकर की जाती है। सदन का विशेष अधिवेशन लोकसभा अध्यक्ष, जब सदन का अधिवेशन चल रहा हो, या राष्ट्रपति, जब लोकसभा का अधिवेशन न चल रहा हो, को सदन के 10% सदस्यों के द्वारा 14 दिन पूर्व लिखित सूचना देकर बुलाया जा सकता है। ऐसी सूचना की प्राप्ति पर लोकसभा अध्यक्ष या राष्ट्रपति विशेष अधिवेशन बुलाने के लिए बाध्य हैं।
सदन से सदस्य को निष्कासित करना तथा सदस्य के निष्कासन को रद्द करना
यदि लोकसभा का कोई सदस्य अपने कार्यों से लोकसभा की गरिमा का उल्लंघन करता है या सदन के विशेषाधिकारों का उल्लंघन करता है, तो लोकसभा उस सदस्य को सदन से निष्कासित कर सकती है। 1993 तक लोकसभा ने अब तक इस अधिकार केवल दो बार प्रयोग किया है।
जेल भेजन की शक्ति
जो व्यक्ति लोकसभा के विशेषाधिकारों का उल्लंघन करता है, उसे लोकसभा के द्वारा जल भेजा जा सकता है। इस अधिकार का प्रयोग सबसे पहले 1977 में किया गया था, जब इन्द्रदेव सिंह को लोकसभा में पर्चे फेंकने के कारण तिहाड़ जेल भेजा गया था। जब श्रीमती इंदिरा गांधी को 1978 में लोकसभा की सदस्यता से निष्कासित किया गया था, तब उन्हें भी संसद के अधिवेशन, जिसमें उन्हें निष्कासित किया गया था, तक के लिए भेज गया था।
नियम बनाने तथा निलम्बित करने की शक्ति
लोकसभा को सदन की कार्रवाई संचालित करने के लिए प्रक्रिया सम्बन्धी नियम बनाने की शक्ति प्राप्त है। साथ ही वह इन नियमों को निलम्बित भी कर सकती है।


राज्य सभा

भारतीय संविधान के प्रवर्तन के बाद 'काउंसिल ऑफ स्टेट्स' (राज्यसभा) का गठन सर्वप्रथम 3 अप्रैल, 1952 को किया गया था। इसकी पहली बैठक 13 मई, 1952 को हुई थी। इसकी अध्यक्षता तत्कालीन उपराष्ट्रपति डॉ. सर्वपल्ली राधाकृष्णन के द्वारा की गई थी। 23 अगस्त 1954 को सभापति ने सदन में घोषणा की कि, ‘काउंसिल ऑफ स्टेट्स’ को अब राज्यसभा के नाम से जाना जाएगा।

गठन

संविधान के अनुच्छेद 80 के अनुसार राज्यसभा का गठन 250 सदस्यों द्वारा होगा, इनमें से 12 सदस्यों के नाम राष्ट्रपति द्वारा निर्देशित किये जाते हैं तथा शेष 238 का चुनाव राज्य तथा संघ राज्यक्षेत्रों की विधान सभाओं के सदस्यों द्वारा किया जाता है। राज्यसभा में राज्यों तथा संघ राज्यक्षेत्रों की विधान सभाओं के लिए आवंटित स्थान को संविधान की चौथी अनुसूची में अन्तर्विष्ट किया गया है। इस अनुसूची में केवल 233 स्थानों के सम्बन्ध में उल्लेख किया गया है, जिससे स्पष्ट होता है कि, वर्तमान समय में राज्यसभा की प्रभावी संख्या 245 (राष्ट्रपति द्वारा नामित सदस्यों सहित) है। वे 12 सदस्य जिन्हें राष्ट्रपति द्वारा राज्यसभा के लिए नामित किया जाता है, उन्हें साहित्य, विज्ञान, कला तथा समाज सेवा के क्षेत्र में विशेष ज्ञान या व्यावहारिक अनुभव होना चाहिए।

अप्रत्यक्ष चुनाव

राज्यसभा के सदस्यों का चुनाव अप्रत्यक्ष रूप से होता है। राज्यों के प्रतिनिधियों का चुनाव राज्यों की विधानसभा के सदस्यों द्वारा आनुपातिक प्रतिनिधित्व पद्धति के अनुसार एकल संक्रमणीय मत द्वारा किया जाता है तथा संघराज्य क्षेत्रों के प्रतिनिधियों का चुनाव उस ढंग से किया जाता है, जिसे संसद विधि बनाकर विहित करे। राज्यसभा में केवल दो संघ राज्यक्षेत्रों- यथा राष्ट्रीय राजधानी राज्य क्षेत्र दिल्ली तथा पाण्डिचेरी, के लिए स्थानों को आवंटित किया गया है। इन राज्य क्षेत्रों के आवंटन में राज्यसभा के स्थानों को भरने के लिए निर्वाचकगणों को गठित करने के सम्बन्ध में लोक प्रतिनिधित्व अधिनियम, 1950 की धारा '27-क' में संसद द्वारा उस ढंग को विहित किया गया है, जिसके अनुसार पाण्डिचेरी संघ राज्यक्षेत्र के लिए आवंटित स्थान को इस संघ राज्य क्षेत्र के विधान सभा के सदस्यों द्वारा चुने गये व्यक्ति से भरा जाएगा तथा दिल्ली के सम्बन्ध में इस धारा में कहा गया था कि, "दिल्ली संघ राज्यक्षेत्र के राज्यसभा सदस्य का चुनाव महानगर के परिषद के निर्वाचित सदस्यों द्वारा किया जाएगा, लेकिन दिल्ली में विधानसभा के गठन के बाद स्थिति में परिवर्तन हो गया है"

अवधि

राज्यसभा का कभी विघटन नहीं होता। इसके सदस्य 6 वर्ष के लिए चुने जाते हैं। इसके सदस्यों में से एक तिहाई सदस्य प्रत्येक दूसरे वर्ष पदमुक्त हो जाते हैं तथा पदमुक्त होने वाले सदस्यों के स्थानों को भरने के लिए प्रत्येक दूसरे वर्ष चुनाव होता है। यदि कोई सदस्य त्यागपत्र दे देता है या उसकी आकस्मिक मृत्यु के कारण कोई स्थान रिक्त होता है, तो इस रिक्त स्थान के लिए उपचुनाव होता है।

अधिवेशन

राज्यसभा का एक वर्ष में दो बार अधिवेशन होता है, लेकिन इसके अधिवेशन की अन्तिम बैठक तथा आगामी अधिवेशन की प्रथम बैठक के लिए नियत तिथि के बीच 6 माह का अन्तर नहीं होना चाहिए। सामान्यतया राज्यसभा का अधिवेशन तभी बुलाया जाता है, जब लोकसभा का अधिवेशन बुलाया जाता है। परन्तु संविधान के अनुच्छेद 352, 356 तथा 360 के अधीन आपात काल की घोषणा के बाद तब राज्य सभा का विशेष अधिवेशन बुलाया जा सकता है, जब लोकसभा का विघटन हो गया हो।

पदाधिकारी

राज्यसभा के निम्नलिखित पदाधिकारी होते हैं-

सभापति

भारत का उपराष्ट्रपति राज्यसभा का पदेन सभापति होता है। यह राज्यसभा की कार्यवाही के संचालन तथा सदन में अनुशासन बनाये रखने के लिए उत्तरदायी होता है। सभापति राज्यसभा के नये सदस्यों को पद की शपथ दिलाता है। उपराष्ट्रपति द्वारा कार्यकारी राष्ट्रपति के रूप में कर्तव्यों के निर्वहन के दौरान राज्यसभा के सभापति के रूप में उपसभापति द्वारा दायित्वों का निर्वहन किया जाता है।

उपसभापति

राज्यसभा अपने सदस्यों में से किसी को अपना उपसभापति चुनेगी और जब उपसभापति का पद रिक्त होता है, तब राज्यसभा किसी अन्य सदस्य को अपना उपसभापति चुनेगी। इस प्रकार चुना गया उपसभापति, सभापति की अनुपस्थिति में उसके कार्यों का निर्वाह करता है। 14 मई, 2002 को संसद द्वारा पारित विधेयक के अनुसार उपसभापति को केन्द्रीय राज्य मंत्री के समान भत्ता देने का प्रावधान किया गया है। उप सभापति निम्नलिखित स्थिति में अपना पद रिक्त कर सकता है-

  1. जब वह राज्यसभा का सदस्य न रह जाय।
  2. जब वह सभापति को अपना त्यागपत्र दे दे।
  3. जब तक वह राज्यसभा के तत्कालीन समस्त सदस्यों के बहुमत से पारित संकल्प द्वारा अपने पद से न हटा दिया जाय, लेकिन ऐसा कोई संकल्प तब तक प्रस्तावित नहीं किया जाएगा, जब तक कि इस #संकल्प को प्रस्तावित करने के आशय की कम से कम चौदह दिन पूर्व सूचना न दे दी गई हो।

अन्य व्यक्ति

जब सभापति तथा उपसभापति दोनों अनुपस्थित हों, तो राज्यसभा के सभापति के कार्यों का निर्वहन राज्यसभा का वह सदस्य करेगा, जिसका नाम राष्ट्रपति निर्देशित करे और राज्यसभा की बैठक में वह व्यक्ति सभापति के कार्यों का निर्वाह करेगा, जिसे राज्यसभा की प्रक्रिया के नियमों द्वारा या राज्यसभा द्वारा अवधारित किया जाय।







 

    















मानहानि का दावा क्या है? और कैसे न्यायालय में प्रस्तुत किया जा सकता है?

मानहानि के लिए दो तरह की कार्यवाहियाँ की जा सकती हैं। उस के लिए आप अपराधिक मुकदमा चला कर मानहानि करने वाले व्यक्तियों और उस में शामिल होने वाले व्यक्तियों को न्यायालय से दंडित करवाया जा सकता है। दूसरा मार्ग यह है कि यदि मानहानि से किसी व्यक्ति की या उस के व्यवसाय की या दोनों की कोई वास्तविक हानि हुई है तो वह उस का हर्जाना प्राप्त करने के लिए दीवानी दावा न्यायालय में प्रस्तुत कर सकता है और हर्जाना प्राप्त कर सकता है। दोनों मामलों में अन्तर यह है कि अपराधिक मामले में जहाँ नाममात्र का न्यायालय शुल्क देना होता है वहीं हर्जाने के दावे में जितना हर्जाना मांगा गया है उस के पाँच से साढ़े सात प्रतिशत के लगभग न्यायालय शुल्क देना पडता है जिस की दर अलग अलग राज्यों में अलग अलग है। हम यहाँ पहले अपराधिक मामले पर बात करते हैं।किसी भी व्यक्ति को सब से पहले तो यह जानना होगा कि मानहानि क्या है? मानहानि को भारतीय दंड संहिता में एक अपराधिक कृत्य भी माना गया है और इसे धारा ४९९ में इस तरह परिभाषित किया गया है -

जो कोई बोले गए, या पढ़े जाने के लिए आशयित शब्दों द्वारा या संकेतों द्वारा या दृश्य निरूपणों द्वारा किसी व्यक्ति के बारे में कोई लांछन इस आशय से लगाता या प्रकाशित करता है कि ऐसे लांछन से ऐसे व्यक्ति की खयाति की अपहानि की जाएया यह जानते हुए या विश्र्वास करने का कारण रखते हुए लगाता या प्रकाशित करता है कि ऐसे लांछन से ऐसे व्यक्ति की खयाति की अपहानि होगी अपवादों को छोड कर यह कहा जाएगा कि वह उस व्यक्ति की मानहानि करता है।

यहाँ मृत व्यक्ति को कोई लांछन लगाना मानहानि की कोटि में आता है, यदि वह लांछन उस व्यक्ति के जीवित रहने पर उस की खयाति की अपहानि होती और उस के परिवार या अन्य निकट संबंधियों की भावनाओं को चोट पहुँचाने के लिए आशयित हो। किसी कंपनी, या संगठन या व्यक्तियों के समूह के बारे में भी यही बात लागू होगी। व्यंगोक्ति के रूप में की गई अभिव्यक्ति भी इस श्रेणी में आएगी। इसी तरह मानहानिकारक अभिव्यक्ति को मुद्रित करना, या विक्रय करना भी अपराध है।लेकिन किसी सत्य बात का लांछन लगाना, लोक सेवकों के आचरण या शील के विषय में सद्भावनापूर्वक राय अभिव्यक्ति करना तथा किसी लोक प्रश्र्न के विषय में किसी व्यक्ति के आचरण या शील के विषय में सद्भावना पूर्वक राय अभिव्यक्त करना तथा न्यायालय की कार्यवाहियों की रिपोर्टिंग भी इस अपराध के अंतर्गत नहीं आएँगी। इसी तरह किसी लोककृति के गुणावगुण पर अभिव्यक्त की गई राय जिसे लोक निर्णय के लिए रखा गया हो अपराध नहीं मानी जाएगी।

मानहानि के इन अपराधों के लिए धारा ५००,५०१ व ५०२ में दो वर्ष तक की कैद की सजा का प्रावधान किया गया है। लोक शांति को भंग कराने को उकसाने के आशय से किसी को साशय अपमानित करने के लिए इतनी ही सजा का प्रावधान धारा ५०४ में किया गया है।


जो कोई व्यक्ति अपनी मानहानि के लिए मानहानि करने वाले के विरुद्ध मुकदमा दर्ज करवाना चाहता है उसे सीधे यह शिकायत दस्तावेजी साक्ष्य सहित सक्षम क्षेत्राधिकार के न्यायालय के समक्ष लिखित में प्रस्तुत करनी होगी। न्यायालय शिकायत प्रस्तुतकर्ता का बयान दर्ज करेगा, यदि आवश्यकता हुई तो उस के एक दो साक्षियों के भी बयान दर्ज करेगा। इन बयानों के आधार पर यदि न्यायालय यह समझता है कि मुकदमा दर्ज करने का पर्याप्त आधार उपलब्ध है तो वह मुकदमा दर्ज कर अभियुक्तों को न्यायालय में उपस्थित होने के लिए समन जारी करेगा। अभियुक्त के उपस्थित होने पर उस से आरोप बता कर पूछा जाएगा कि वह आरोप स्वीकार करता है अथवा नहीं। आरोप स्वीकार कर लेने पर उस मुकदमे का निर्णय कर दिया जाएगा। यदि अभियुक्तों द्वारा आरोप स्वीकार नहीं किया जाता है तो शिकायतकर्ता और उस के साक्षियों के बयान पुनः अभियुक्तों के सामने लिए जाएंगे, जिस में अभियुक्तों या उन के वकील को साक्षियों से प्रतिपरीक्षण करने का अधिकार होगा। साक्ष्य समाप्त होने के उपरांत अभियुक्तों के बयान लिए जाएंगे।यदि अभियुक्त बचाव में अपना बयान कराना चाहते हैं तो न्यायालय से अनुमति ले कर अपने बयान दर्ज करा सकते हैं। वे अपने किन्ही साक्षियों के बयान भि दर्ज करवा सकते हैं। इस तरह आई साक्ष्य के आधार पर दोनों पक्षों के तर्क सुन कर न्यायालय द्वारा निर्णय कर दिया जाएगा। अपराधिक मामले में अभियुक्तों को दोषमुक्त किया जा सकता है या उन्हें सजा और जुर्माने से दंडित किया जा सकता है। शिकायतकर्ता को अभियुक्तों से न्यायालय का खर्च दिलाया जा सकता है। लेकिन इस मामले में कोई हर्जाना शिकायतकर्ता को नहीं दिलाया जा सकता।

यदि कोई व्यक्ति अपनी मानहानि से हुई हानि की क्षतिपूर्ति प्राप्त करना चाहता है तो उसे, सब से पहले उन लोगों को जिन से वह क्षतिपूर्ति चाहता है एक नोटिस देना चाहिए कि वह उन से मानहानि से हुई क्षति के लिए कितनी राशि क्षतिपूर्ति के रूप में चाहता है। नोटिस की अवधि व्यततीत हो जाने पर वह मांगी गई क्षतिपूर्ति की राशि के अनुरूप न्यायालय शुल्क के साथ सक्षम क्षेत्राधिकार के न्यायालय में वाद दस्तावेजी साक्ष्य के साथ प्रस्तुत कर सकता है। वाद प्रस्तुत करने पर संक्षिप्त जाँच के बाद वाद को दर्ज कर न्यायालय समन जारी कर प्रतिवादियों को बुलाएगा और प्रतिवादियों को वाद का उत्तर प्रस्तुत करने को कहेगा। उत्तर प्रस्तुत हो जाने के उपरांत यह निर्धारण किया जाएगा कि वाद और प्रतिवाद में तथ्य और विधि के कौन से विवादित बिंदु हैं और किस बिन्दु को किस पक्षकार को साबित करना है। प्रत्येक पक्षकार को उस के द्वारा साबित किए जाने वाले बिन्दु पर साक्ष्य प्रस्तुत करने का अवसर प्रदान किया जाएगा। अंत में दोनों पक्षों के तर्क सुन कर निर्णय कर दिया जाएगा। यहाँ पर्याप्त साक्ष्य न होने पर दावा खारिज भी किया जा सकता है और पर्याप्त साक्ष्य होने पर मंजूर किया जा कर हर्जाना और उस के साथ न्यायालय का खर्च भी दिलाया जा सकता है।  

 

मानहानि मामले में न्यूज़ चैनल पर सौ करोड़ का दावा

एक भारतीय समाचार चैनल ‘टाइम्स नाओ’ के खिलाफ़ दायर किए गए सौ करोड़ के मानहानि के मुक़दमे में सुप्रीम कोर्ट ने मुंबई हाईकोर्ट के अंतरिम फैसले में दख़ल देने से इंकार करते हुए अदालत में पैसे जमा कराए जाने को सही ठहराया है.
यह मामला साल 2008 का है जब समाचार चैनल ने धोखाधड़ी के एक मामले में गलती से सुप्रीम कोर्ट के एक पूर्व न्यायधीश की तस्वीर जारी कर दी थी. यह गलत तस्वीर 15 सेकेंड के लिए टेलिविज़न पर जारी रही थी.

इसके हर्जाने के रुप में निचली अदालत ने समाचार चैनल को कोर्ट में 20 करोड़ रुपए नकद और 80 करोड़ रुपए बैंक गारंटी के रुप में जमा कराने का आदेश दिया था.
सोमवार को सुनाए गए अपने फैसले में सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि ‘हाईकोर्ट के अंतरिम आदेश में उसे कोई गलती नहीं दिखती और इस फैसले में दख़ल के लिए उनके पास कोई कारण नहीं.’
सुप्रीम कोर्ट के इस फैसले के बाद टाइम्स ग्लोबल ब्रॉडकास्टिंग कंपनी लिमिटेड से संबंधित यह मामला हाईकोर्ट में जारी रहेगा.
इस बीच ‘टाइम्स नाओ’ के मुख्य संपादक अरनब गोस्वामी ने सोमवार शाम इस मामले को लेकर पूर्व जज पीबी सांवत से माफ़ी मांगते हुए कहा कि चैनल इस गलती से जस्टिस सावंत की छवि को हुए नुकसान के लिए माफ़ी मांगता है और यह भूल ब्रॉडकास्ट के दौरान 15 सेकेंड के लिए हुई एक गड़बड़ी का नतीजा है


प्रेस की स्वतंत्रता बनाम. न्यायालय की मानहानि

कानून का शासन लोकतांत्रिक समाज की नींव है. न्यायपालिका कानून के नियम के संरक्षक है. लोगों को न्याय के न्यायालयों में विश्वास को कलंकित हो ,की अनुमति नहीं कर सकते हैं, कम या किसी भी व्यक्ति की तिरस्कारपूर्ण व्यवहार द्वारा नष्ट. यदि न्यायपालिका भावना जिसके साथ वे पवित्रता से सौंपा गया है ,अपने कर्तव्यों और कार्यों को प्रभावी ढंग से करने के लिए और सच प्रदर्शन है, गरिमा और न्यायालयों के अधिकार और सम्मान हर कीमत पर संरक्षित किया जाना है. न्यायपालिका की नींव विश्वास और इसके लिए निडर और निष्पक्ष न्याय देने की क्षमता में लोगों का विश्वास है. न्यायालयों अदालत की अवमानना के लिए दंडित करने के असाधारण शक्तियों, जो कार्य करता है, जो विधि के प्राधिकार को कमजोर और यह बदनामी द्वारा अनादर में लाने की संभावना है. में लिप्त के साथ सौंपा गया है. एक निर्णय या पिछले आचरण के संबंध में एक न्यायाधीश पर हमले न्याय के कारण प्रशासन पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ता है. यदि न्यायपालिका में विश्वास नष्ट हो जाता है, न्याय के कारण प्रशासन निश्चित रूप से ग्रस्त है.
शक्ति और मीडिया की पहुंच, दोनों के रूप में अच्छी तरह के रूप में प्रिंट इलेक्ट्रॉनिक जबरदस्त है. यह जनहित के हित में प्रयोग किया गया है. एक स्वतंत्र प्रेस के एक बहुत महत्वपूर्ण स्तंभ है जिस पर कानून और लोकतंत्र टिकी के शासन की नींव है. उसी समय, यह भी आवश्यक है कि स्वतंत्रता अत्यंत जिम्मेदारी के साथ प्रयोग किया जाना चाहिए. यह दुरुपयोग किया जा नहीं करना चाहिए. यह एक लाइसेंस के रूप में अन्य संस्थाओं को बदनाम में नहीं माना जाना चाहिए. कोई खबर संवेदीकरण के कारण, बस में करने के लिए कुछ भी नहीं कर ,बाहर की कोशिश करने के लिए पदावनत किया गया है. जहां प्रलोभन के लिए विशेष रूप से उन संस्थाओं या व्यक्तियों जो कार्यालय की प्रकृति से जवाब नहीं कर सकते की कीमत पर बदनामी द्वारा अनादर में लाने की संभावना है , ऐसे प्रलोभन का विरोध हो गया है और यह कानून के कार्य के रूप में स्पष्ट मार्गदर्शन दे क्या अनुमति है और क्या अनुमति नहीं है .. हालांकि मीडिया, सार्वजनिक हित, सार्वजनिक अच्छा या ऐसे किसी बयान की रिपोर्ट के लिए एक न्यायिक कार्य या एक अदालत के फैसले के उचित आलोचना करने के लिए रिसॉर्ट में कर सकते हैं, यह घृण्य कास्टिंग पर से बचना चाहिए, या नामूसी करना अनुचित मंशा या निजी पूर्वाग्रह न्यायाधीश. न ही वे न्यायपालिका या एक न्यायालय को ग़ुस्से में नहीं लाना चाहिए, या बनाने या एक न्यायाधीश के खिलाफ क्षमता और अखंडता की कमी के व्यक्तिगत आरोपों. झूठी खबर के साथ प्रयोग किया जाना ,एक सार्वजनिक सेवा नहीं है.
एक फैसले का कोई आलोचना, लेकिन जोरदार न्यायालय की अवमानना के लिए प्रदान की यह उचित शिष्टाचार और अच्छे विश्वास की सीमा के भीतर रखा जाता है. एक फैसले ,एक सार्वजनिक दस्तावेज है या जो है एक निर्णय के निष्पक्ष और उचित आलोचना एक न्याय के प्रशासन के साथ संबंध अवमानना का गठन नहीं होता .न्यायाधीश के एक सार्वजनिक कार्य है. यह एक बात कहना है कि के रूप में खुलासा तथ्यों पर निर्णय सबूत या कानून के साथ अनुरूप लागू नहीं किया गया है सही नहीं है है. लेकिन यह पूरी तरह अलग है कहना है कि न्यायाधीश को एक पूर्व स्वभाव आरोपी या जज रिश्वत गया है, या टिप्पणी है कि के रिटायर होने के बारे में एक न्यायाधीश बिक्री के लिए उपलब्ध है और एक जंगली आरोप है कि जज कोई हिम्मत नहीं है, बरी कोई ईमानदारी और अमीर लोगों या भाषण में कहा कि निर्णय बकवास है और एक कूड़ेदान में फेंक दिया जाना चाहिए सज़ा पर्याप्त शक्तिशाली नहीं है के लिए एक निष्पक्ष आलोचना हो नहीं कहा और किया जा सकता है और कानून के तहत संरक्षित नहीं किया जा सकता है. ऐसे मामलों निष्पक्ष और वास्तविक आलोचना की सीमा को पार किया है और एक स्पष्ट और न्यायपालिका की गरिमा और प्रतिष्ठा को प्रभावित करने की प्रवृत्ति है.

 


 

 

जनवरी 26, 2012

www.bhadas4media.org

दोस्तों आजकल मैं ब्लॉग पर काम नहीं कर पा रहा हूँ क्यूंकि मैं एक बेबसाईट पर काम कर रहा हूं... मैं आपका साथ वहां भी चाहता हूँ.

मेरी बेबसाईट जरूर चेक करें जिसका URL  एड्रेस है:

www.bhadas4media.org

 

मई 02, 2011

हिन्दी भाषा का उद्भव और उसका विकास

"हिन्दी" वस्तुत: फारसी भाषा का शब्द है,जिसका अर्थ है-हिन्दी का या हिंद से सम्बन्धित हिन्दी शब्द की निष्पत्ति सिन्धु -सिंध से हुई है क्योंकि ईरानी भाषा में "" को "" बोला जाता है इस प्रकार हिन्दी शब्द वास्तव में सिन्धु शब्द का प्रतिरूप है कालांतर में हिंद शब्द सम्पूर्ण भारत का पर्याय बनकर उभरा इसी "हिंद" से हिन्दी शब्द बना
आज हम जिस भाषा को हिन्दी के रूप में जानते है,वह आधुनिक आर्य भाषाओं में से एक है आर्य भाषा का प्राचीनतम रूप वैदिक संस्कृत है,जो साहित्य की परिनिष्ठित भाषा थी वैदिक भाषा में वेद,संहिता एवं उपनिषदों - वेदांत का सृजन हुआ है वैदिक भाषा के साथ-साथ ही बोलचाल की भाषा संस्कृत थी,जिसे लौकिक संस्कृत भी कहा जाता है संस्कृत का विकास उत्तरी भारत में बोली जाने वाली वैदिककालीन भाषाओं से माना जाता है अनुमानत: वी.शताब्दी .पू.में इसका प्रयोग साहित्य में होने लगा था संस्कृत भाषा में ही रामायण तथा महाभारत जैसे ग्रन्थ रचे गये वाल्मीकि ,व्यास,कालिदास,अश्वघोष,भारवी,माघ,भवभूति,विशाख,मम्मट,दंडी तथा श्रीहर्ष आदि संस्कृत की महान विभूतियाँ है इसका साहित्य विश्व के समृद्ध साहित्य में से एक है
संस्कृतकालीन आधारभूत बोलचाल की भाषा परिवर्तित होते-होते ५०० .पू.के बाद तक काफ़ी बदल गई,जिसे "पालि" कहा गया महात्मा बुद्ध के समय में पालि लोक भाषा थी और उन्होंने पालि के द्वारा ही अपने उपदेशों का प्रचार-प्रसार किया संभवत: यह भाषा ईसा की प्रथम ईसवी तक रही पहली ईसवी तक आते-आते पालि भाषा और परिवर्तित हुई,तब इसे "प्राकृत" की संज्ञा दी गई इसका काल पहली .से ५०० .तक है पालि की विभाषाओं के रूप में प्राकृत भाषायें- पश्चिमी,पूर्वी ,पश्चिमोत्तरी तथा मध्य देशी ,अब साहित्यिक भाषाओं के रूप में स्वीकृत हो चुकी थी,जिन्हें मागधी,शौरसेनी,महाराष्ट्री,पैशाची,ब्राचड तथा अर्धमागधी भी कहा जा सकता है

आगे चलकर,प्राकृत भाषाओं के क्षेत्रीय रूपों से अपभ्रंश भाषायें प्रतिष्ठित हुईइनका समय ५०० .से १००० .तक माना जाता हैअपभ्रंश भाषा साहित्य के मुख्यत: दो रूप मिलते है - पश्चिमी और पूर्वीअनुमानत: ००० .के आसपास अपभ्रंश के विभिन्न क्षेत्रीय रूपों से आधुनिक आर्य भाषाओं का जन्म हुआअपभ्रंश से ही हिन्दी भाषा का जन्म हुआआधुनिक आर्य भाषाओं में,जिनमे हिन्दी भी है, का जन्म १००० .के आसपास ही हुआ था,किंतु उसमे साहित्य रचना का कार्य ११५० या इसके बाद प्रारम्भ हुआअनुमानत: तेरहवीं शताब्दी में हिन्दी भाषा में साहित्य रचना का कार्य प्रारम्भ हुआ,यही कारण है कि हजारी प्रसाद द्विवेदी जी हिन्दी को ग्राम्य अपभ्रंशों का रूप मानते हैआधुनिक आर्यभाषाओं का जन्म अपभ्रंशों के विभिन्न क्षेत्रीय रूपों से इस प्रकार माना जा सकता है -


अपभ्रंश .................................................आधुनिक आर्य भाषा तथा उपभाषा

पैशाची ....................................................लहंदा ,पंजाबी
ब्राचड ......................................................सिन्धी
महाराष्ट्री ..................................................मराठी.
अर्धमागधी...............................................पूर्वी हिन्दी.
मागधी ....................................................बिहारी ,बंगला,उड़िया ,असमिया.
शौरसेनी ..................................................पश्चिमी हिन्दी,राजस्थानी ,पहाड़ी,गुजराती.

उपरोक्त विवरण से स्पष्ट है कि हिन्दी भाषा का उद्भव ,अपभ्रंश के अर्धमागधी ,शौरसेनी और मागधी रूपों से हुआ है

हिन्दी साहित्य का इतिहास

हिन्दी साहित्य के इतिहास लेखन को यदि आरंभिक, मध्यआधुनिक काल में विभाजित कर विचार किया जाए तो स्पष्ट होता है कि हिन्दी साहित्य का इतिहास अत्यंत विस्तृत व प्राचीन है। हिन्दी भाषा के उद्भव और विकास के सम्बन्ध में प्रचलित धारणाओं पर विचार करते समय हमारे सामने हिन्दी भाषा की उत्पत्ति का प्रश्न दसवीं शताब्दी के आसपास की प्राकृताभास भाषा तथा अप्रभंश भाषाओं की ओर जाता है। अपभ्रंश शब्द की व्युत्पत्ति और जैन रचनाकारों की अपभ्रंश कृतियों का हिन्दी से सम्बन्ध स्थापित करने के लिए जो तर्क और प्रमाण हिन्दी साहित्य के इतिहास ग्रन्थों में प्रस्तुत किये गये हैं उन पर विचार करना भी आवश्यक है। सामान्यतः प्राकृत की अन्तिम अपभ्रंश अवस्था से ही हिन्दी साहित्य का आविर्भाव स्वीकार किया जाता है। उस समय अपभ्रंश के कई रूप थे और उनमें सातवीं-आठवीं शताब्दी से ही पद्य रचना प्रारम्भ हो गयी थी।
साहित्य की दृष्टि से पद्यबद्ध जो रचनाएँ मिलती हैं वे दोहा रूप में ही हैं और उनके विषय, धर्म, नीति, उपदेश आदि प्रमुख हैं। राजाश्रित कवि और चारण नीति, श्रृंगार, शौर्य, पराक्रम आदि के वर्णन से अपनी साहित्य-रुचि का परिचय दिया करते थे। यह रचना-परम्परा आगे चलकर शैरसेनी अपभ्रंश या प्राकृताभास हिन्दी में कई वर्षों तक चलती रही। पुरानी अपभ्रंश भाषा और बोलचाल की देशी भाषा का प्रयोग निरन्तर बढ़ता गया। इस भाषा को विद्यापति ने देसी भाषा कहा है, किन्तु यह निर्णय करना सरल नहीं है कि हिन्दी शब्द का प्रयोग इस भाषा के लिए कब और किस देश में प्रारम्भ हुआ। हाँ, इतना अवश्य कहा जा सकता है कि प्रारम्भ में हिन्दी शब्द का प्रयोग विदेशी मुसलमानों ने किया था। इस शब्द से उनका तात्पर्य भारतीय भाषा का था।

हिन्दी साहित्य के इतिहास-लेखन का इतिहास

आरंभिक काल से लेकर आधुनिक व आज की भाषा में आधुनिकोत्तर काल तक साहित्य इतिहास लेखकों के नाम शताधिक गिनाये जा सकते हैं । हिन्दी साहित्य के इतिहास शब्दबद्ध करने का प्रश्न अधिक महत्वपूर्ण था।

आरंभिक काल

आरंभिक काल में मात्र कवियों के सूची संग्रह को इतिहास रूप में प्रस्तुत कर दिया गया। भक्तमाल आदि ग्रंथों में यदि भक्त कवियों का विवरण दिया भी गया तो धार्मिक दृष्टिकोण तथा श्रध्दातिरेक की अभिव्यक्ति के अतिरिक्त उसकी और कुछ उपलब्धि नहीं रही। 19वीं सदी में ही हिन्दी भाषा और साहित्य दोनों के विकास की रूपरेखा स्पष्ट करने के प्रयास होने लगे। प्रारंभ में निबंधों में भाषा और साहित्य का मूल्यांकन किया गया जिसे एक अर्थ में साहित्य के इतिहास की प्रस्तुति के रूप में भी स्वीकार किया गया। डॉ. रूपचंद पारीक, गार्सा-द-तासी के ग्रंथ इस्त्वार द ल लितरेत्यूर ऐन्दूई ऐन्दूस्तानी को हिन्दी साहित्य का प्रथम इतिहास मानते हैं। उन्होंने लिखा है - हिन्दी साहित्य का पहला इतिहास लेखक गार्सा-द-तासी हैं, इसमें संदेह नहीं है। परंतु डॉ.किशोरीलाल गुप्त का मंतव्य है- तासी ने अपने ग्रंथ को हिन्दुई और हिन्दुस्तानी साहित्य का इतिहास कहा है, पर यह इतिहास नहीं हैं, क्योंकि इसमें न तो कवियों का विवरण काल क्रमानुसार दिया गया है, न काल विभाग किया गया है और अब काल विभाग ही नहीं है तो प्रवृत्ति निरूपण की आशा ही कैसे की जा सकती है। वैसे तासी और सरोज को हिन्दी साहित्य का प्रथम और द्वितीय इतिहास मानने वालों की संख्या अल्प नहीं है परंतु डॉ. गुप्त का विचार है कि ग्रियर्सन का द माडर्न वर्नाक्यूलर लिटरेचर ऑफ हिन्दुस्तान हिन्दी साहित्य का प्रथम इतिहास है। डॉ.रामकुमार वर्मा ने इसके विपरीत अनुसंधानात्मक प्रवृत्ति की दृष्टि से तासी के प्रयास को अधिक महत्वपूर्ण निरूपित किया है।
पाश्चात्य और प्राच्य विद्वानों ने हिन्दी के इतिहास लेखन के आरंभिक काल में प्रशंसनीय भूमिका निभाई है। शिवसिंह सरोज साहित्य इतिहास लेखन के अनन्य सूत्र हैं। हिन्दी के वे पहले विद्वान हैं जिन्होंने हिन्दी साहित्य की परंपरा के सातत्य पर समदृष्टि डाली है। अनन्तर मिश्र बंधुओं ने साहित्यिक इतिहास तथा राजनीतिक परिस्थितियों के पारस्परिक संबंधों का दर्शन कराया। डॉ. सुमन राजे के शब्दों में - काल विभाजन की दृष्टि से भी विश्वबंधु विनोद प्रगति की दिशा में बढ़ता दिखाई देता है।

नया युग

आचार्य रामचंद्र शुक्ल ने हिन्दी साहित्य का प्रथम व्यवस्थित इतिहास लिखकर एक नये युग का समारंभ किया। उन्होंने लोकमंगल व लोक-धर्म की कसौटी पर कवियों और कवि-कर्म की परख की और लोक चेतना की दृष्टि से उनके साहित्यिक अवदान की समीक्षा की। यहीं से काल विभाजन और साहित्य इतिहास के नामकरण की सुदृढ़ परंपरा का आरंभ हुआ। इस युग में डॉ. श्याम सुन्दर दास, रमाशंकर शुक्ल 'रसाल', सूर्यकांत शास्त्री, अयोध्या सिंह उपाध्याय, डॉ. रामकुमार वर्मा, राजनाथ शर्मा प्रभृति विद्वानों ने हिन्दी साहित्य के इतिहास विषयक ग्रंथों का प्रणयन कर स्तुत्य योगदान दिया। आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी ने शुक्ल युग के इतिहास लेखन के अभावों का गहराई से अध्ययन किया और हिन्दी साहित्य की भूमिका (1940 ई.), हिन्दी साहित्य का आदिकाल (1952 ई.) और हिन्दी साहित्य; उद्भव और विकास (1955 ई.) आदि ग्रंथ लिखकर उस अभाव की पूर्ति की। काल विभाजन में उन्होंने कोई विशेष परिवर्तन नहीं किया। शैली की समग्रता उनकी अलग विशेषता है।

आधुनिक काल

वर्तमान युग में आचार्य द्विवेदी के अतिरिक्त साहित्येतिहास लेखन में अन्य प्रयास भी हुए परंतु इस दिशा में विकास को अपेक्षित गति नहीं मिल पाई। वैसे डॉ. गणपति चंद्र गुप्त, डॉ. रामखेलावन पांडेय के अतिरिक्त डॉ. लक्ष्मी सागर वार्ष्णेय, डॉ. कृष्णलाल, भोलानाथ तथा डॉ. शिवकुमार की कृतियों के अतिरिक्त काशी नागरी प्रचारिणी सभा, वाराणसी द्वारा प्रकाशित हिन्दी साहित्य का इतिहास एवं डॉ नगेन्द्र के संपादन में प्रकाशित हिन्दी साहित्य का इतिहास आधुनिक युग की उल्लेखनीय उपलब्धियां हैं। हरमहेन्द्र सिंह बेदी ने भी हिन्दी साहित्येतिहास दर्शन की भूमिका लिखकर साहित्य के इतिहास और उसके प्रति दार्शनिक दृष्टि को नये ढंग से रेखांकित किया है।

हिंदी साहित्य के इतिहासकार और उनके ग्रंथ

हिंदी साहित्य के मुख्य इतिहासकार और उनके ग्रंथ निम्नानुसार हैं -
1. गार्सा द तासी : इस्तवार द ला लितेरात्यूर ऐंदुई ऐंदुस्तानी (फ्रेंच भाषा में; फ्रेंच विद्वान, हिंदी साहित्य के पहले इतिहासकार)
2. शिवसिंह सेंगर : शिव सिंह सरोज
3. जार्ज ग्रियर्सन : द मॉडर्न वर्नेक्यूलर लिट्रैचर आफ हिंदोस्तान
4. मिश्र बंधु : मिश्र बंधु विनोद
5. रामचंद्र शुक्ल : हिंदी साहित्य का इतिहास
6. हजारी प्रसाद द्विवेदी : हिंदी साहित्य की भूमिका; हिंदी साहित्य का आदिकाल; हिंदी साहित्य :उद्भव और विकास
7. रामकुमार वर्मा : हिंदी साहित्य का आलोचनात्मक इतिहास
8. धीरेन्द्र वर्मा : हिंदी साहित्य
9. डॉ नगेन्द्र : हिंदी साहित्य का इतिहास; हिंदी वांड्मय 20वीं शती
10. रामस्वरूप चतुर्वेदी : हिंदी साहित्य और संवेदना का विकास, लोकभारती प्रकाशन, इलाहाबाद, 1986
11. बच्चन सिंह : हिंदी साहित्य का दूसरा इतिहास , राधाकृष्ण प्रकाशन, नई दिल्ली, बूंद-बूंद इतिहास

हिंदी साहित्य के विकास के विभिन्न काल

हिंदी साहित्य का आरंभ आठवीं शताब्दी से माना जाता है। यह वह समय है जब सम्राट् हर्ष की मृत्यु के बाद देश में अनेक छोटे छोटे शासनकेंद्र स्थापित हो गए थे जो परस्पर संघर्षरत रहा करते थे। विदेशी मुसलमानों से भी इनकी टक्कर होती रहती थी। धार्मिक क्षेत्र अस्तव्यस्त थे। इन दिनों उत्तर भारत के अनेक भागों में बौद्ध धर्म का प्रचार था। बौद्ध धर्म का विकास कई रूपों में हुआ जिनमें से एक वज्रयान कहलाया। वज्रयानी तांत्रिक थे और सिद्ध कहलाते थे। इन्होंने जनता के बीच उस समय की लोकभाषा में अपने मत का प्रचार किया। हिंदी का प्राचीनतम साहित्य इन्हीं वज्रयानी सिद्धों द्वारा तत्कलीन लोकभाषा पुरानी हिंदी में लिखा गया। इसके बाद नाथपंथी साधुओं का समय आता है। इन्होंने बौद्ध, शांकर, तंत्र, योग और शैव मतों के मिश्रण से अपना नया पंथ चलाया जिसमें सभी वर्गों और वर्णों के लिए धर्म का एक सामान्य मत प्रतिपादित किया गया था। लोकप्रचलित पुरानी हिंदी में लिखी इनकी अनेक धार्मिक रचनाएँ उपलब्ध हैं। इसके बाद जैनियों की रचनाएँ मिलती हैं। स्वयंभू का "पउमचरिउ' अथवा रामायण आठवीं शताब्दी की रचना है। बौद्धों और नाथपंथियों की रचनाएँ मुक्तक और केवल धार्मिक हैं पर जैनियों की अनेक रचनाएँ जीवन की सामान्य अनुभूतियों से भी संबद्ध हैं। इनमें से कई प्रबंधकाव्य हैं। इसी काल में अब्दुलरहमान का काव्य "संदेशरासक' भी लिखा गया जिसमें परवर्ती बोलचाल के निकट की भाषा मिलती है। इस प्रकार ग्यारहवीं शताब्दी तक पुरानी हिंदी का रूप निर्मित और विकसित होता रहा।

वीरगाथा काल

ग्यारहवीं सदी के लगभग देशभाषा हिंदी का रूप अधिक स्फुट होने लगा। उस समय पश्चिमी हिंदी प्रदेश में अनेक छोटे छोटे राजपूत राज्य स्थापित हो गए थे। ये परस्पर अथवा विदेशी आक्रमणकारियों से प्राय: युद्धरत रहा करते थे। इन्हीं राजाओं के संरक्षण में रहनेवाले चारणों और भाटों का राजप्रशस्तिमूलक काव्य वीरगाथा के नाम से अभिहित किया गया। इन वीरगाथाओं को रासो कहा जाता है। इनमें आश्रयदाता राजाओं के शौर्य और पराक्रम का ओजस्वी वर्णन करने के साथ ही उनके प्रेमप्रसंगों का भी उल्लेख है। रासो ग्रंथों में संघर्ष का कारण प्राय: प्रेम दिखाया गया है। इन रचनाओं में इतिहास और कल्पना का मिश्रण है। रासो वीरगीत (बीसलदेवरासो और आल्हा आदि) और प्रबंधकाव्य (पृथ्वीराजरासो, खमनरासो आदि) - इन दो रूपों में लिखे गए। इन रासो ग्रंथों में से अनेक की उपलब्ध प्रतियाँ चाहे ऐतिहासिक दृष्टि से संदिग्ध हों पर इन वीरगाथाओं की मौखिक परंपरा अंसदिग्ध है। इनमें शौर्य और प्रेम की ओजस्वी और सरस अभिव्यक्ति हुई है।
इसी कालावधि में मैथिल कोकिल विद्यापति हुए जिनकी पदावली में मानवीय सौंदर्य ओर प्रेम की अनुपम व्यंजना मिलती है। कीर्तिलता और कीर्तिपताका इनके दो अन्य प्रसिद्ध ग्रंथ हैं। अमीर खुसरो का भी यही समय है। इन्होंने ठेठ खड़ी बोली में अनेक पहेलियाँ, मुकरियाँ और दो सखुन रचे हैं। इनके गीतों, दोहों की भाषा ब्रजभाषा है।

भक्तिकाल (सन्‌ १४००-१६०० ई.)

तेरहवीं सदी तक धर्म के क्षेत्र में बड़ी अस्तव्यस्तता आ गई। जनता में सिद्धों और योगियों आदि द्वारा प्रचलित अंधविश्वास फैल रहे थे, शास्त्रज्ञानसंपन्न वर्ग में भी रूढ़ियों और आडंबर की प्रधानता हो चली थी। मायावाद के प्रभाव से लोकविमुखता और निष्क्रियता के भाव समाज में पनपने लगे थे। ऐसे समय में भक्तिआंदोलन के रूप में ऐसा भारतव्यापी विशाल सांस्कृतिक आंदोलन उठा जिसने समाज में उत्कर्षविधायक सामाजिक और वैयक्तिक मूल्यों की प्रतिष्ठा की। भक्ति आंदोलन का आरंभ दक्षिण के आलवार संतों द्वारा दसवीं सदी के लगभग हुआ। वहाँ शंकराचार्य के अद्वैतमत और मायावाद के विरोध में चार वैष्णव संप्रदाय खड़े हुए। इन चारों संप्रदायों ने उत्तर भारत में विष्णु के अवतारों का प्रचारप्रसार किया। इनमें से एक के प्रवर्तक रामानुजाचार्य थे, जिनकी शिष्यपरंपरा में आनेवाले रामानंद ने (पंद्रहवीं सदी) उत्तर भारत में रामभक्ति का प्रचार किया। रामानंद के राम ब्रह्म के स्थानापन्न थे जो राक्षसों का विनाश और अपनी लीला का विस्तार करने के लिए संसार में अवतीर्ण होते हैं। भक्ति के क्षेत्र में रामानंद ने ऊँचनीच का भेदभाव मिटाने पर विशेष बल दिया। राम के सगुण और निर्गुण दो रूपों को माननेवाले दो भक्तों - कबीर और तुलसी को इन्होंने प्रभावित किया। विष्णुस्वामी के शुद्धाद्वैत मत का आधार लेकर इसी समय बल्लभाचार्य ने अपना पुष्टिमार्ग चलाया। बारहवीं से सोलहवीं सदी तक पूरे देश में पुराणसम्मत कृष्णचरित्‌ के आधार पर कई संप्रदाय प्रतिष्ठित हुए, जिनमें सबसे ज्यादा प्रभावशाली वल्लभ का पुष्टिमार्ग था। उन्होंने शांकर मत के विरुद्ध ब्रह्म के सगुण रूप को ही वास्तविक कहा। उनके मत से यह संसार मिथ्या या माया का प्रसार नहीं है बल्कि ब्रह्म का ही प्रसार है, अत: सत्य है। उन्होंने कृष्ण को ब्रह्म का अवतार माना और उसकी प्राप्ति के लिए भक्त का पूर्ण आत्मसमर्पण आवश्यक बतलाया। भगवान्‌ के अनुग्रह या पुष्टि के द्वारा ही भक्ति सुलभ हो सकती है। इस संप्रदाय में उपासना के लिए गोपीजनवल्लभ, लीलापुरुषोत्तम कृष्ण का मधुर रूप स्वीकृत हुआ। इस प्रकार उत्तर भारत में विष्णु के राम अैर कृष्ण अवतारों प्रतिष्ठा हुई।
यद्यपि भक्ति का स्रोत दक्षिण से आया तथापि उत्तर भारत की नई परिस्थितियों में उसने एक नया रूप भी ग्रहण किया। मुसलमानों के इस देश में बस जाने पर एक ऐसे भक्तिमार्ग की आवश्यकता थी जो हिंदू और मुसलमान दोनों को ग्राह्य हो। इसके अतिरिक्त निम्न वर्ग के लिए भी अधिक मान्य मत वही हो सकता था जो उन्हीं के वर्ग के पुरुष द्वारा प्रवर्तित हो। महाराष्ट्र के संत नामदेव ने १४वीं शताब्दी में इसी प्रकार के भक्तिमत का सामान्य जनता में प्रचार किया जिसमें भगवान्‌ के सगुण और निर्गुण दोनों रूप गृहीत थे। कबीर के संतमत के ये पूर्वपुरुष हैं। दूसरी ओर सूफी कवियों ने हिंदुओं की लोककथाओं का आधार लेकर ईश्वर के प्रेममय रूप का प्रचार किया।
इस प्रकार इन विभिन्न मतों का आधार लेकर हिंदी में निर्गुण और सगुण के नाम से भक्तिकाव्य की दो शाखाएँ साथ साथ चलीं। निर्गुणमत के दो उपविभाग हुए - ज्ञानाश्रयी और प्रेमाश्रयी। पहले के प्रतिनिधि कबीर और दूसरे के जायसी हैं। सगुणमत भी दो उपधाराओं में प्रवाहित हुआ - रामभक्ति और कृष्णभक्ति। पहले के प्रतिनिधि तुलसी हैं और दूसरे के सूरदास।
भक्तिकाव्य की इन विभिन्न प्रणलियों की अपनी अलग अलग विशेषताएँ हैं पर कुछ आधारभूत बातों का सन्निवेश सब में है। प्रेम की सामान्य भूमिका सभी ने स्वीकार की। भक्तिभाव के स्तर पर मनुष्यमात्र की समानता सबको मान्य है। प्रेम और करुणा से युक्त अवतार की कल्पना तो सगुण भक्तों का आधार ही है पर निर्गुणोपासक कबीर भी अने राम को प्रिय, पिता और स्वामी आदि के रूप में स्मरण करते हैं। ज्ञान की तुलना में सभी भक्तों ने भक्तिभाव को गौरव दिया है। सभी भक्त कवियों ने लोकभाषा का माध्यम स्वीकार किया है।
ज्ञानश्रयी शाखा के प्रमुख कवि कबीर पर तात्कालिक विभिन्न धार्मिक प्रवृत्तियों और दार्शनिक मतों का सम्मिलित प्रभाव है। उनकी रचनाओं में धर्मसुधारक और समाजसुधारक का रूप विशेष प्रखर है। उन्होंने आचरण की शुद्धता पर बल दिया। बाह्याडंबर, रूढ़ियों और अंधविश्वासों पर उन्होंने तीव्र कशाघात किया। मनुष्य की क्षमता का उद्घोष कर उन्होंने निम्नश्रेणी की जनता में आत्मगौरव का भाव जगाया। इस शाखा के अन्य कवि रैदास, दादू हैं।
अपनी व्यक्तिगत धार्मिक अनुभूति और सामाजिक आलोचना द्वारा कबीर आदि संतों ने जनता को विचार के स्तर पर प्रभावित किया था। सूफी संतों ने अपने प्रेमाख्यानों द्वारा लोकमानस को भावना के स्तर पर प्रभावित करने का प्रयत्न किया। ज्ञानमार्गी संत कवियों की वाणी मुक्तकबद्ध है, प्रेममार्गी कवियों की प्रेमभावना लोकप्रचलित आख्यानों का आधार लेकर प्रबंधकाव्य के रूप में ख्पायित हुई है। सूफी ईश्वर को अनंत प्रेम और सौंदर्य का भंडार मानते हैं। उनके अनुसार ईश्वर को जीव प्रेम के मार्ग से ही उपलब्ध कर सकता है। साधाना के मार्ग में आनेवाली बाधाओं को वह गुरु या पीर की सहायता से साहसपूर्वक पार करके अपने परमप्रिय का साक्षात्कार करता है। सूफियों ने चाहे अपने मत के प्रचार के लिए अपने कथाकाव्य की रचना की हो पर साहित्यिक दृष्टि से उनका मूल्य इसलिए है कि उसमें प्रेम और उससे प्रेरित अन्य संवेगों की व्यंजना सहजबोध्य लौकिक भूमि पर हुई है। उनके द्वारा व्यंजित प्रेम ईश्वरोन्मुख है पर सामान्यत: यह प्रेम लौकिक भूमि पर ही संक्रमण करता है। परमप्रिय के सौंदर्य, प्रेमक्रीड़ा और प्रेमी के विरहोद्वेग आदि का वर्णन उन्होंने इतनी तन्मयता से किया है और उनके काव्य का मानवीय आधार इतना पुष्ट है कि आध्यात्मिक प्रतीकों और रूपकों के बावजूद उनकी रचनाएँ प्रेमसमर्पित कथाकाव्य की श्रेष्ठ कृतियाँ बन गई हैं। उनके काव्य का पूरा वातावरण लोकजीवन का और गार्हस्थिक है। प्रेमाख्यानकों की शैली फारसी के मसनवी काव्य जैसी है।
इस धारा के सर्वप्रमुख कवि जायसी हैं जिनका "पदमावत' अपनी मार्मिक प्रेमव्यंजना, कथारस और सहज कलाविन्यास के कारण विशेष प्रशंसित हुआ है। इनकी अन्य रचनाओं में "अखरावट' और "आखिरी कलाम' आदि हैं, जिनमें सूफी संप्रदायसंगत बातें हैं१ इस धारा के अन्य कवि हैं कुतबन, मंझन, उसमान, शेख, नबी, और नूरमुहम्मद आदि।
ज्ञानमार्गी शाखा के कवियों में विचार की प्रधानता है तो सूफियों की रचनाओं में प्रेम का एकांतिक रूप व्यक्त हुआ है। सगुण धारा के कवियों ने विचारात्मक शुष्कता और प्रेम की एकांगिता दूरकर जीवन के सहज उल्लासमय और व्यापक रूप की प्रतिष्ठा की। कृष्णभक्तिशाखा के कवियों ने आनंदस्वरूप लीलापुरुषोत्तम कृष्ण के मधुर रूप की प्रतिष्ठा कर जीवन के प्रति गहन राग को स्फूर्त किया। इन कवियों में सूरसागर के रचयिता महाकवि सूरदास श्रेष्ठतम हैं जिन्होंने कृष्ण के मधुर व्यक्तित्व का अनेक मार्मिक रूपों में साक्षात्कार किया। ये प्रेम और सौंदर्य के निसर्गसिद्ध गायक हैं। कृष्ण के बालरूप की जैसी विमोहक, सजीव और बहुविध कल्पना इन्होंने की है वह अपना सानी नहीं रखती। कृष्ण और गोपियों के स्वच्छंद प्रेमप्रसंगों द्वारा सूर ने मानवीय राग का बड़ा ही निश्छल और सहज रूप उद्घाटित किया है। यह प्रेम अपने सहज परिवेश में सहयोगी भाववृत्तियों से संपृक्त होकर विशेष अर्थवान्‌ हो गया है। कृष्ण के प्रति उनका संबंध मुख्यत: सख्यभाव का है। आराध्य के प्रति उनका सहज समर्पण भावना की गहरी से गहरी भूमिकाओं को स्पर्श करनेवाला है। सूरदास वल्लभाचार्य के शिष्य थे। वल्लभ के पुत्र बिट्ठलनाथ ने कृष्णलीलागान के लिए अष्टछाप के नाम से आठ कवियों का निर्वाचन किया था। सूरदास इस मंडल के सर्वोत्कृष्ट कवि हैं। अन्य विशिष्ट कवि नंददास और परमानंददास हैं। नंददास की कलाचेतना अपेक्षाकृत विशेष मुखर है।
मध्ययुग में कृष्णभक्ति का व्यापक प्रचार हुआ और वल्लभाचार्य के पुष्टिमार्ग के अतिरिक्त अन्य भी कई संप्रदाय स्थापित हुए, जिन्होंने कृष्णकाव्य को प्रभावित किया। हितहरिवंश (राधावल्लभी संप्र.), हरिदास (टट्टी संप्र.), गदाधर भट्ट और सूरदास मदनमोहन (गौड़ीय संप्र.) आदि अनेक कवियों ने विभिन्न मतों के अनुसार कृष्णप्रेम की मार्मिक कल्पनाएँ कीं। मीरा की भक्ति दांपत्यभाव की थी जो अपने स्वत:स्फूर्त कोमल और करुण प्रेमसंगीत से आंदोतिल करती हैं। नरोत्तमदास, रसखान, सेनापति आदि इस धारा के अन्य अनेक प्रतिभाशाली कवि हुए जिन्होंने हिंदी काव्य को समृद्ध किया। यह सारा कृष्णकाव्य मुक्तक या कथाश्रित मुक्तक है। संगीतात्मकता इसका एक विशिष्ट गुण है।
कृष्णकाव्य ने भगवान्‌ के मधुर रूप का उद्घाटन किया पर उसमें जीवन की अनेकरूपता नहीं थी, जीवन की विविधता और विस्तार की मार्मिक योजना रामकाव्य में हुई। कृष्णभक्तिकाव्य में जीवन के माधुर्य पक्ष का स्फूर्तिप्रद संगीत था, रामकाव्य में जीवन का नीतिपक्ष और समाजबोध अधिक मुखरित हुआ। एक ने स्वच्छंद रागतत्व को महत्व दिया तो दूसरे ने मर्यादित लोकचेतना पर विशेष बल दिया। एक ने भगवान की लोकरंजनकारी सौंदर्यप्रतिमा का संगठन किया तो दूसरे ने उसके शक्ति, शील और सौंदर्यमय लोकमंगलकारी रूप को प्रकाशित किया। रामकाव्य का सर्वोत्कृष्ट वैभव "रामचरितमानस' के रचयिता तुलसीदास के काव्य में प्रकट हुआ जो विद्याविद् ग्रियर्सन की दृष्टि में बुद्धदेव के बाद के सबसे बड़े जननायक थे। पर काव्य की दृष्टि से तुलसी का महत्व भगवान्‌ के एक ऐसे रूप की परिकल्पना में है जो मानवीय सामर्थ्य और औदात्य की उच्चतम भूमि पर अधिष्ठित है। तुलसी के काव्य की एक बड़ी विशेषता उनकी बहुमुखी समन्वयभावना है जो धर्म, समाज और साहित्य सभी क्षेत्रों में सक्रिय है। उनका काव्य लोकोन्मुख है। उसमें जीवन की विस्तीर्णता के साथ गहराई भी है। उनका महाकाव्य रामचरितमानस राम के संपूर्ण जीवन के माध्यम से व्यक्ति और लोकजीवन के विभिन्न पक्षों का उद्घाटन करता है। उसमें भगवान्‌ राम के लोकमंगलकारी रूप की प्रतिष्ठा है। उनका साहित्य सामाजिक और वैयक्तिक कर्तव्य के उच्च आदर्शों में आस्था दृढ़ करनेवाला है। तुलसी की "विनयपत्रिका' में आराध्य के प्रति, जो कवि के आदर्शों का सजीव प्रतिरूप है, उनका निरंतर और निश्छल समर्पणभाव, काव्यात्मक आत्माभिव्यक्ति का उत्कृष्ट दृष्टांत है। काव्याभिव्यक्ति के विभिन्न रूपों पर उनका समान अधिकार है। अपने समय में प्रचलित सभी काव्यशैलियों का उन्होंने सफल प्रयोग किया। प्रबंध और मुक्तक की साहित्यिक शैलियों के अतिरिक्त लोकप्रचलित अवधी और ब्रजभाषा दोनों के व्यवहार में वे समान रूप से समर्थ हैं। तुलसी के अतिरिक्त रामकाव्य के अन्य रचयिताओं में अग्रदास, नाभादास, प्राणचंद चौहान और हृदयराम आदि उल्लेख्य हैं।
आज की दृष्टि से इस संपूर्ण भक्तिकाव्य का महत्व उसक धार्मिकता से अधिक लोकजीवनगत मानवीय अनुभूतियों और भावों के कारण है। इसी विचार से भक्तिकाल को हिंदी काव्य का स्वर्ण युग कहा जा सकता है।

रीतिकाल (सन्‌ १७००-१८०० ई.)

१७०० ई. के आस पास हिंदी कविता में एक नया मोड़ आया। इसे विशेषत: तात्कालिक दरबारी संस्कृति और संस्कृतसाहित्य से उत्तेजना मिली। संस्कृत साहित्यशास्त्र के कतिपय अंशों ने उसे शास्त्रीय अनुशासन की ओर प्रवृत्त किया। हिंदी में रीति या काव्यरीति शब्द का प्रयोग काव्यशास्त्र के लिए हुआ था। इसलिए काव्यशास्त्रबद्ध सामान्य सृजनप्रवृत्ति और रस, अलंकार आदि के निरूपक बहुसंख्यक लक्षणग्रंथों को ध्यान में रखते हुए इस समय के काव्य को रीतिकाव्य कहा गया। इस काव्य की शृंगारी प्रवृत्तियों की पुरानी परंपरा के स्पष्ट संकेत संस्कृत, प्राकृत, अपभ्रंश, फारसी और हिंदी के आदिकाव्य तथा कृष्णकाव्य की शृंगारी प्रवृत्तियों में मिलते हैं।
रीतिकाव्य रचना का आरंभ एक संस्कृतज्ञ ने किया। ये थे आचार्य केशवदास, जिनकी सर्वप्रसिद्ध रचनाएँ कविप्रिया, रसिकप्रिया और रामचंद्रिका हैं। कविप्रिया में अलंकार और रसिकप्रिया में रस का सोदाहरण निरूपण है। लक्षण दोहों में और उदाहरण कवित्तसवैए में हैं। लक्षण-लक्ष्य-ग्रंथों की यही परंपरा रीतिकाव्य में विकसित हुई। रामचंद्रिका केशव का प्रबंधकाव्य है जिसमें भक्ति की तन्मयता के स्थान पर एक सजग कलाकार की प्रखर कलाचेतना प्रस्फुटित हुई। केशव के कई दशक बाद चिंतामणि से लेकर अठारहवीं सदी तक हिंदी में रीतिकाव्य का अजस्र स्रोत प्रवाहित हुआ जिसमें नर-नारी-जीवन के रमणीय पक्षों और तत्संबंधी सरस संवेदनाओं की अत्यंत कलात्मक अभिव्यक्ति व्यापक रूप में हुई।
रीतिकाल के कवि राजाओं और रईसों के आश्रय में रहते थे। वहाँ मनोरंजन और कलाविलास का वातावरण स्वाभाविक था। बौद्धिक आनंद का मुख्य साधन वहाँ उक्तिवैचित््रय समझा जाता था। ऐसे वातावरण में लिखा गया साहित्य अधिकतर शृंगारमूलक और कलावैचित््रय से युक्त था। पर इसी समय प्रेम के स्वच्छंद गायक भी हुए जिन्होंने प्रेम की गहराइयों का स्पर्श किया है। मात्रा और काव्यगुण दोनों ही दृष्टियों से इस समय का नर-नारी-प्रेम और सौंदर्य की मार्मिक व्यंजना करनेवाला काव्यसाहित्य महत्वपूर्ण है।
इस समय वीरकाव्य भी लिखा गया। मुगल शासक औरंगजेब की कट्टर सांप्रदायिकता और आक्रामक राजनीति की टकराहट से इस काल में जो विक्षोभ की स्थितियाँ आई उन्होंने कुछ कवियों को वीरकाव्य के सृजन की भी प्रेरणा दी। ऐसे कवियों में भूषण प्रमुख हैं जिन्होंने रीतिशैली को अपनाते हुए भी वीरों के पराक्रम का ओजस्वी वर्णन किया। इस समय नीति, वैराग्य और भक्ति से संबंधित काव्य भी लिखा गया। अनेक प्रबंधकाव्य भी निर्मित हुए। इधर के शोधकार्य में इस समय की शृंगारेतर रचनाएँ और प्रबंधकाव्य प्रचुर परिमाण में मिल रहे हैं। इसलिए रीतिकालीन काव्य को नितांत एकांगी और एकरूप समझना उचित नहीं है। इस समय के काव्य में पूर्ववर्ती कालों की सभी प्रवृत्तियाँ सक्रिय हैं। यह प्रधान धारा शृंगारकाव्य की है जो इस समय की काव्यसंपत्ति का वास्तविक निदर्शक मानी जाती रही है। शृंगारी काव्य तीन वर्गों में विभाजित किया जाता है। पहला वर्ग रीतिबद्ध कवियों का है जिसके प्रतिनिधि केशव, चिंतामणि, भिखारीदास, देव, मतिराम और पद्माकर आदि हैं। इन कवियों ने दोहों में रस, अलंकार और नायिका के लक्षण देकर कवित्त सवैए में प्रेम और सौंदर्य की कलापूर्ण मार्मिक व्यंजना की है। संस्कृत साहित्यशास्त्र में निरूपित शास्त्रीय चर्चा का अनुसरण मात्र इनमें अधिक है। पर कुछ ने थोड़ी मौलिकता भी दिखाई है, जैसे भिखारीदास का हिंदी छंदों का निरूपण। दूसरा वर्ग रीतिसिद्ध कवियों का है। इन कवियों ने लक्षण नहीं निरूपित किए, केवल उनके आधार पर काव्यरचना की। बिहारी इनमें सर्वश्रेष्ठ हैं, जिन्होंने दोहों में अपनी "सतसई' प्रस्तुत की। विभिन्न मुद्राओंवाले अत्यंत व्यंजक सौंदर्यचित्रों और प्रेम की भावदशाओं का अनुपम अंकन इनके काव्य में मिलता है। तीसरे वर्ग में घनानंद, बोधा, द्विजदेव ठाकुर आदि रीतिमुक्त कवि आते हैं जिन्होंने स्वच्छंद प्रेम की अभिव्यक्ति की है। इनकी रचनाओं में प्रेम की तीव्रता और गहनता की अत्यंत प्रभावशाली व्यंजना हुई है।
रीतिकाव्य मुख्यत: मांसल शृंगार का काव्य है। इसमें नर-नारीजीवन के स्मरणीय पक्षों का सुंदर उद्घाटन हुआ है। अधिक काव्य मुक्तक शैली में है, पर प्रबंधकाव्य भी हैं। इन दो सौ वर्षों में शृंगारकाव्य का अपूर्व उत्कर्ष हुआ। पर धीरे धीरे रीति की जकड़ बढ़ती गई और हिंदी काव्य का भावक्षेत्र संकीर्ण होता गया। आधुनिक युग तक आते आते इन दोनों कमियों की ओर साहित्यकारों का ध्यान विशेष रूप से आकृष्ट हुआ।

आधुनिक युग का आरंभ

[संपादित करें] उन्नीसवीं शताब्दी

यह आधुनिक युग का आरंभ काल है जब भारतीयों का यूरोपीय संस्कृति से संपर्क हुआ। भारत में अपनी जड़ें जमाने के काम में अँगरेजी शासन ने भारतीय जीवन को विभिन्न स्तरों पर प्रभावित और आंदोलित किया। नई परिस्थितियों के धक्के से स्थितिशील जीवनविधि का ढाँचा टूटने लगा। एक नए युग की चेतना का आरंभ हुआ। संघर्ष और सामंजस्य के नए आयाम सामने आए।
नए युग के साहित्यसृजन की सर्वोच्च संभावनाएँ खड़ी बोली गद्य में निहित थीं, इसलिए इसे गद्य-युग भी कहा गया है। हिंदी का प्राचीन गद्य राजस्थानी, मैथिली और ब्रजभाषा में मिलता है पर वह साहित्य का व्यापक माध्यम बनने में अशक्त था। खड़ीबोली की परंपरा प्राचीन है। अमीर खुसरो से लेकर मध्यकालीन भूषण तक के काव्य में इसके उदाहरण बिखरे पड़े हैं। खड़ी बोली गद्य के भी पुराने नमूने मिले हैं। इस तरह का बहुत सा गद्य फारसी और गुरुमुखी लिपि में लिखा गया है। दक्षिण की मुसलिम रियासतों में "दखिनी' के नाम से इसका विकास हुआ। अठारहवीं सदी में लिखा गया रामप्रसाद निरंजनी और दौलतराम का गद्य उपलब्ध है। पर नई युगचेतना के संवाहक रूप में हिंदी के खड़ी बोली गद्य का व्यापक प्रसार उन्नीसवीं सदी से ही हुआ। कलकत्ते के फोर्ट विलियम कालेज में, नवागत अँगरेज अफसरों के उपयोग के लिए, लल्लू जी लाल तथा सदल मिश्र ने गद्य की पुस्तकें लिखकर हिंदी के खड़ी बोली गद्य की पूर्वपरंपरा के विकास में कुछ सहायता दी। सदासुखलाल और इंशाअल्ला खाँ की गद्य रचनाएँ इसी समय लिखी गई। आगे चलकर प्रेस, पत्रपत्रिकाओं, ईसाई धर्मप्रचारकों तथा नवीन शिक्षा संस्थाओं से हिंदी गद्य के विकास में सहायता मिली। बंगाल, पंजाब, गुजरात आदि विभिन्न प्रांतों के निवासियों ने भी इसकी उन्नति और प्रसार में योग दिया। हिंदी का पहला समाचारपत्र "उदंत मार्तड' १८२६ ई. में कलकत्ते से प्रकाशित हुआ। राजाशिवप्रसाद और राजा लक्ष्मणसिंह हिंदी गद्य के निर्माण और प्रसार मैं अपने अपने ढंग से सहायक हुए। आर्यसमाज और अन्य सांस्कृतिक आंदोलनों ने भी आधुनिक गद्य को आगे बढ़ाया।
गद्यसाहित्य की विकासमान परंपरा उन्नीसवीं सदी के उत्तरार्ध से अग्रसर हुई। इसके प्रवर्तक आधुनिक युग के प्रवर्तक और पथप्रदर्शक भारतेंदु हरिश्चंद्र थे जिन्होंने साहित्य का समकालीन जीवन से घनिष्ठ संबंध स्थापित किया। यह संक्रांति और नवजागरण का युग था। अँगरेजों की कूटनीतिक चालों और आर्थिक शोषण से जनता संत्रस्त और क्षुब्ध थी। समाज का एक वर्ग पाश्चात्य संस्कारों से आक्रांत हो रहा था तो दूसरा वर्ग रूढ़ियों में जकड़ा हुआ था। इसी समय नई शिक्षा का आरंभ हुआ और सामाजिक सुधार के आंदोलन चले। नवीन ज्ञान विज्ञान के प्रभाव से नवशिक्षितों में जीवन के प्रति एक नया दृष्टिकोण विकसित हुआ जो अतीत की अपेक्षा वर्तमान और भविष्य की ओर विशेष उन्मुख था। सामाजिक विकास में उत्पन्न आस्था और जाग्रत समुदायचेतना ने भारतीयों में जीवन के प्रति नया उत्साह उत्पन्न किया। भारतेंदु के समकालीन साहित्य में विशेषत: गद्यसाहित्य में तत्कालीन वैचारिक और भौतिक परिवेश की विभिन्न अवस्थाओं की स्पष्ट और जीवंत अभिव्यक्ति हुई। इस युग की नवीन रचनाएँ देशभक्ति और समाजसुधार की भावना से परिपूर्ण हैं। अनेक नई परिस्थितियों की टकराहट से राजनीतिक और सामाजिक व्यंग की प्रवृत्ति भी उद्बुद्ध हुई। इस समय के गद्य में बोलचाल की सजीवता हैं। लेखकों के व्यक्तित्व से संपृक्त होने के कारण उसमें पर्याप्त रोचकता आ गई है। सबसे अधिक निबंध लिखे गए जो व्यक्तिप्रधान और विचारप्रधान तथा वर्णनात्मक भी थे। अनेक शैलियों में कथासाहित्य भी लिखा गया, अधिकतर शिक्षाप्रधान। पर यथार्थवादी दृष्टि और नए शिल्प की विशिष्टता श्रीनिवासदास के "परीक्षागुरु' में ही है। देवकीनंदन का तिलस्मी उपन्यास 'चंद्रकांता' इसी समय प्रकाशित हुआ। पर्याप्त परिमाण में नाटकों और सामाजिक प्रहसनों की रचना हुई। भारतेंदु, प्रतापनारायण, श्री निवासदास, आदि प्रमुख नाटककार हैं। साथ ही भक्ति और शृंगार की बहुत सी सरस कविताएँ भी निर्मित हुई। पर जिन कविताओं में सामाजिक भावों की अभिव्यक्ति हुई वे ही नए युग की सृजनशीलता का आरंभिक आभास देती हैं। खड़ी बोली के छिटफुट प्रयोगों को छोड़ शेष कविताएँ ब्रजभाषा में लिखी गई। वास्तव में नया युग इस समय के गद्य में ही अधिक प्रतिफलित हो सका।

बीसवीं शताब्दी (सन्‌ १९००-२० ई.)

इस कालावधि की सबसे महत्वपूर्ण घटनाएँ दो हैं - एक तो सामान्य काव्यभाषा के रूप में खड़ी बोली की स्वीकृति और दूसरे हिंदी गद्य का नियमन और परिमार्जन। इस कार्य में सर्वाधिक सशक्त योग सरस्वती' संपादक महावीरप्रसार द्विवेदी का था। द्विवेदी जी और उनके सहकर्मियों ने हिंदी गद्य की अभिव्यक्तिक्षमता को विकसित किया। निबंध के क्षेत्र में द्विवेदी जी के अतिरिक्त बालमुकुंद, चंद्रधर शर्मा गुलेरी, पूर्णसिंह, पद्मसिंह शर्मा जैसे एक से एक सावधान, सशक्त और जीवंत गद्यशैलीकार सामने आए। उपन्यास अनेक लिखे गए पर उसकी यथार्थवादी परंपरा का उल्लेखनीय विकास न हो सका। यथार्थपरक आधुनिक कहानियाँ इसी काल में जनमी और विकासमान हुई। गुलेरी, कौशिक आदि के अतिरिक्त प्रेमचंद और प्रसाद की भी आरंभिक कहानियाँ इसी समय प्रकाश में आई। नाटक का क्षेत्र अवश्य सूना सा रहा। इस समय के सबसे प्रभावशाली समीक्षक द्विवेदी जी थे जिनकी संशोधनवादी और मर्यादानिष्ठ आलोचना ने अनेक समकालीन साहित्य को पर्याप्त प्रभावित किया। मिश्रबंधु, कृष्णबिहारी मिश्र और पद्मसिंह शर्मा इस समय के अन्य समीक्षक हैं पर कुल मिलाकर इस समय की समीक्षा बाह्यपक्षप्रधान ही रही।
सुधारवादी आदर्शों से प्रेरित अयोध्यासिंह उपाध्याय ने अपने "प्रियप्रवास' में राधा का लोकसेविका रूप प्रस्तुत किया और खड़ीबोली के विभिन्न रूपों के प्रयोग में निपुणता भी प्रदर्शित की। मैथिलीशरण गुप्त ने "भारत भारती' में राष्ट्रीयता और समाजसुधार का स्वर ऊँचा किया और "साकेत' में उर्मिला की प्रतिष्ठा की। इस समय के अन्य कवि द्विवेदी जी, श्रीधर पाठक, बालमुकुंद गुप्त, नाथूराम शर्मा, गयाप्रसाद शुक्ल आदि हैं। ब्रजभाषा काव्यपरंपरा के प्रतिनिधि रत्नाकर और सत्यनारायण कविरत्न हैं। इस समय खड़ी बोली काव्यभाषा के परिमार्जन और सामयिक परिवेश के अनुरूप रचना का कार्य संपन्न हुआ। नए काव्य का अधिकांश विचारपरक और वर्णनात्मक है।
सन्‌ १९२०-४० के दो दशकों में आधुनिक साहित्य के अंतर्गत वैचारिक और कलात्मक प्रवृत्तियों का अनेक रूप उत्कर्ष दिखाई पड़ा। सर्वाधिक लोकप्रियता उपन्यास और कहानी को मिली। कथासाहित्य में घटनावैचित््रय की जगह जीते जागते स्मरणीय चरित्रों की सृष्टि हुई। निम्न और मध्यवर्गीय समाज के यथार्थपरक चित्र व्यापक रूप में प्रस्तुत किए गए। वर्णन की सजीव शैलियों का विकास हुआ। इस समय के सर्वप्रमुख कथाकार प्रेमचंद हैं। वृंदावनलाल वर्मा के ऐतिहासिक उपन्यास भी उल्लेख्य है। हिंदी नाटक इस समय जयशंकर प्रसाद के साथ सृजन के नवीन स्तर पर आरोहण करता है। उनके रोमांटिक ऐतिहासिक नाटक अपनी जीवंत चारित््रयसृष्टि, नाटकीय संघर्षों की योजना और संवेदनीयता के कारण विशेष महत्व के अधिकारी हुए। कई अन्य नाटककार भी सक्रिय दिखाई पड़े। हिंदी आलोचना के क्षेत्र में रामचंद्र शुक्ल ने सूर, तुलसी और जायसी की सूक्ष्म भावस्थितियों और कलात्मक विशेषताओं का मार्मिक उद्घाटन किया और साहित्य के सामाजिक मूल्यों पर बल दिया। अन्य आलोचक है श्री नंददुलारे वाजपेयी, डा. नगेंद्र तथा डा. हजारीप्रसाद द्विवेदी।
काव्य के क्षेत्र में यह छायावाद के विकास का युग है। पूर्ववर्ती काव्य वस्तुनिष्ठ था, छायावादी काव्य भावनिष्ठ है। इसमें व्यक्तिवादी प्रवृत्तियों का प्राधान्य है। स्थूल वर्णन विवरण के स्थान पर छायावादी काव्य में व्यक्ति की स्वच्छंद भावनाओं की कलात्मक अभिव्यक्ति हुई। स्थूल तथ्य और वस्तु की अपेक्षा बिंबविधायक कल्पना छायावादियों को अधिक प्रिय है। उनकी सौंदर्यचेतना विशेष विकसित है। प्रकृतिसौंदर्य ने उन्हें विशेष आकृष्ट किया। वैयक्तिक संवेगों की प्रमुखता के कारण छायावादी काव्य मूलत: प्रगीतात्मक है। इस समय खड़ी बोली काव्यभाषा की अभिव्यक्तिक्षमता का अपूर्व विकास हुआ। जयशंकर प्रसाद, माखनलाल, सुमित्रानंदन पंत, सूर्यकांत त्रिपाठी "निराला', महादेवी, नवीन और दिनकर छायावाद के उत्कृष्ट कवि हैं।
सन्‌ १९४० के बाद छायावाद की संवेगनिष्ठ, सौंदर्यमूलक और कल्पनाप्रिय व्यक्तिवाद प्रवृत्तियों के विरोध में प्रगतिवाद का संघबद्ध आंदोलन चला जिसकी दृष्टि समाजबद्ध, यथार्थवादी और उपयोगितावादी है। सामाजिक वैषम्य और वर्गसंघर्ष का भाव इसमें विशेष मुखर हुआ। इसने साहित्य को सामाजिक क्रांति के अस्त्र के रूप में ग्रहण किया। अपनी उपयोगितावादी दृष्टि की सीमाओं के कारण प्रगतिवादी साहित्य, विशेषत: कविता में कलात्मक उत्कर्ष की संभावनाएँ अधिक नहीं थीं, फिर भी उसने साहित्य के सामाजिक पक्ष पर बल देकर एक नई चेतना जाग्रत की।
प्रगतिवादी आंदोलन के आरंभ के कुछ ही बाद नए मनोविज्ञान या मनोविश्लेषणशास्त्र से प्रभावित एक और व्यक्तिवादी प्रवृत्ति साहित्य के क्षेत्र में सक्रिय हुई थी जिसे सन्‌ १९४३ के बाद प्रयोगवाद नाम दिया गया। इसी का संशोधित रूप वर्तमानकालीन नई कविता और नई कहानियाँ हैं।
इस प्रकार हम देखते हैं कि द्वितीय महायुद्ध और उसके उत्तरकालीन साहित्य में जीवन की विभीषिका, कुरूपता और असंगतियों के प्रति अंसतोष तथा क्षोभ ने कुछ आगे पीछे दो प्रकार की प्रवृत्तियों को जन्म दिया। एक का नाम प्रगतिवाद है, जो मार्क्स के भौतिकवादी जीवनदर्शन से प्रेरणा लेकर चला; दूसरा प्रयोगवाद है, जिसने परंपरागत आदर्शों और संस्थाओं के प्रति अपने अंसतोष की तीव्र प्रतिक्रियाओं को साहित्य के नवीन रूपगत प्रयोगों के माध्यम से व्यक्त किया। इसपर नए मनोविज्ञान का गहरा प्रभाव पड़ा।
प्रगतिवाद से प्रभावित कथाकारों में यशपाल, उपेंद्रनाथ अश्क, अमृतलाल नागर और नागार्जुन आदि विशिष्टि हैं। आलोचकों में रामविलास शर्मा प्रमुख हैं। कवियों में केदारनाथ अग्रवाल, नागार्जुन, रांगेय राघव, शिवमंगल सिंह "सुमन' आदि के नाम प्रसिद्ध हैं।
नए मनोविज्ञान से प्रभावित प्रयोगों के लिए सचेष्ट कथाकारों में अज्ञेय प्रमुख हैं। मनोविज्ञान से गंभीर रूप में प्रभावित इलाचंद्र जोशी और जैनेंद्र हैं। इन लेखकों ने व्यक्तिमन के अवचेतन का उद्घाटन कर नया नैतिक बोध जगाने का प्रयत्न किया। जैनेंद्र और अज्ञेय ने कथा के परंपरागत ढाँचे को तोड़कर शैलीशिल्प संबंधी नए प्रयोग किए। परवर्ती लेखकों और कवियों में वैयक्तिक प्रतिक्रियाएँ अधिक प्रखर हुईं। समकालीन परिवेश से वे पूर्णत: संसक्त हैं। उन्होंने समाज और साहित्य की मान्यताओं पर गहरा प्रश्नच्ह्रि लगा दिया है। व्यक्तिजीवन की लाचारी, कुंठा, आक्रोश आदि व्यक्त करने के साथ ही वे वैयक्तिक स्तर पर नए जीवनमूल्यों के अन्वेषण में लगे हुए हैं। उनकी रचनाओं में एक ओर सार्वभौम संत्रास और विभीषिका की छटपटाहट है तो दूसरी ओर व्यक्ति के अस्तित्व की अनिवार्यता और जीवन की संभावनाओं को रेखांकित करने का उपक्रम भी। हमारा समकालीन साहित्य आत्यंतिक व्यक्तिवाद से ग्रस्त है, और यह उसकी सीमा है। पर उसका सबसे बड़ा बल उसकी जीवनमयता है जिसमें भविष्य की सशक्त संभावनाएँ निहित हैं।